हाल ही जैसलमेर पुलिस द्वारा 19 वर्ष के एक नवयुवक को गोलियों से भून देने की घटना के बाद अचानक “राजपूत सोसायटी” पत्रिका के नंबर 2014 “जैसलमेर विशेषांक” में पत्रिका के प्रधान संपादक उपेन्द्रसिंह जी राठौड़ का लिखा एक लेख अनायास ही याद आ गया| उपेन्द्रसिंह जी राठौड़ ने उस लेख में जैसलमेर जिले के तत्कालीन हालातों व समस्या का सटीक विश्लेषण कर जो आशंकाएं व्यक्त की थी, उस और ना तो समाज ने ध्यान दिया ना प्रशासन ने| उनके इस लेख ने पुलिसकर्मियों द्वारा की गई इस हत्या की वजह के पीछे जो जड़ है उसका आभास स्वत: हो जाता है| उपेन्द्रसिंह जी राठौड़ का नंबर 2014 में लिखा लेख हुबहू आपके पठन के लिए प्रस्तुत है-
जैसलमेर राजपूत बहुल जिला है। आजादी से पहले यहां का जन-जीवन सरल था। पशु-पालन और यायावरी यहां के जीवन के केन्द्र में था। पशुपालन सादगी और सरलता की मांग करता है, इसलिए यहां के लोग सहज और सरल थे। आजादी के बाद भी उनके जीवन में अधिक परिवर्तन नहीं आया। हां राजस्थान केनाल (नहर) आने के बाद जब बाहर के लोग यहां आए, तब यहां के स्थानीय निवासियों को पहला झटका लगा, पर इसे वे सह गये थे।
यहां के लोगों को दूसरा बड़ा झटका लगा पवन ऊर्जा की कम्पनियों की आमद से। सन् 2000 में पवन ऊर्जा की विपुल संभावना देखकर कपनियां यहां आई। पवन ऊर्जा के संयंत्र स्थापित होने लगे। इस सब में स्थानीय नागरिकों के हितों की अनदेखी की गई। जैसलमेर के अमर सागर तथा बड़ा बाग जैसे ऐतिहासिक स्थलों को इन पवन पंखो से पाट दिया गया। ऐतिहासिक और पुरातात्विक महत्व के इन स्थलों का सौंदर्य विकृत कर दिया गया| लेकिन राजपरिवार के विरोध के अलावा किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। सब विकास के सामने अंधे हो चुके थे।
राजपरिवार की आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज बन कर रह गई। पर्यटन व्यवसायियों के विरोध को जिला प्रशासन के साथ मिलकर दबा दिया गया तथा कपनियों का मनमाना अराजकतावादी आचरण जिले में पसरना शुरू हो गया। नगर की छाती में पंखें गाड़कर इन कंपनियों की गिद्ध निगाहें ग्रामीण क्षेत्र की तरफ पड़ी। जैसा कि ये कपनियां करती आई है, उन्होंने यहां भी वही किया। ग्रामीण क्षेत्रों के प्रभावी लोगों को अपनी ओर मिलाना, भ्रमित युवाओं को लालच देकर उन्हें भ्रमित करना। ऐसा ये कपनियां पहली बार नहीं कर रही थी। यह उनकी नीति होती है, उन्होंने ऐसा प्रत्येक देश में किया है। जैसलमेर में भी यही किया| इन कपनियों ने बाजार भाव से तीन चार गुणा ऊंचे भावों में इन भ्रमित व प्रभावशाली लोगों के वाहन अपनी कम्पनियों में लगाए। उनकी आंखों में लोभ और लालच की पट्टी बांध कर उन्हें समाज से अलग किया गया और उनके कधों पर बंदूक रखकर ये कपनियां अपना हित साधन करने लगी। आम आदमी सरकारी अफसरों, प्रभावी सामाजिक हस्तियों और भ्रमित युवाओं के गठजोड़ से आने वाली इन पवन ऊर्जा कंपनियों के सामने सिर उठाने की भी हिम्मत नहीं रखता था, इसलिए इन कंपनियों के भस्मासूरी पंजे गांवों की कांकड़ों गायों के गोचरों और खेत खलिहानों तक पसरने लगे। हताश और निराश ग्रामीण जन केवल टुकर टुकर ताकते खड़े रहे। छोटी-छोटी ठेकेदारियों से इन कम्पनियों ने भ्रमित और बाहुबली लोगों का जमीर खरीद लिया था। जिले के सहज-सरल जीवन में इन कपनियों ने आडम्बर और दिखावा बो दिया था। भ्रमित और बाहुबली लोगों के तड़क भड़क और असामाजिक आचरणों का असर अन्य युवाओं पर भी पड़ा, जो पशुपालन खेती अथवा मेहनत-मजदूरी करके जीवन यापन करते थे। उन्हें लगा कि जीवन है तो यही है। सो वे भी इन कम्पनियों की तरफ भागने लगे। लदकद कपड़ों, महंगी गाड़ियों, गप्प बाजियों के इस माहौल में नैतिकता और स्थानीय सामाजिक आचरण का कोई महत्व नहीं था। एक अंधी हौड़ पसरी हुई थी। कौन किससे आगे निकलता ? कौन ज्यादा कमाता? किसके पास बड़ी गाड़ी है? किसके यहां बड़ी पार्टी हुई ? किसके यहां कम्पनियों के अफसर ठहरे? इस अंधी होड़ में स्थानीय प्रशासन के अफसर तो थे ही, जननेता भी शामिल हो गए। एम.पी., एम. एल.ए., से लेकर पंच-सरपंच और गलियों के नेताओं तक, बस यही तो कम्पनियां चाहती थी।
उन्होंने अपने संयत्रों से जैसलमेर के मगरों, खेतों-खलिहानों, तालाबों-आगोरों, ओरण-खेड़ों को पाट दिया। कानून और स्थानीय जीवन मूल्य इनकी जेबों में पड़े सिसक रहे थे। आम जीवन में यह आर्थिक और असामाजिक अश्लीलता पांव पसारने लगी थी। ग्रामीणों के विरोध की उन्हें परवाह भी नहीं थी। जिन लोगों को लाभ-लोभ के वशीभूत कम्पनियों ने फंसाया था, जिन्होंने गाड़ियां, जे.सी.बी., क्रेने इत्यादि खरीदी थी, काम निकलने के बाद उन्हें दूध में से मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिया। बुर्जुगों की सलाह न मानने के कारण वे युवा ठगे से देखते रह गए। उनके बैंक के लोन बाकी थे। इन ग्रामीण युवाओं के घर पर बैंक के सीजर्स के फोन आने शुरू हो गए। बीच बचाव से कुछ मामले निपटे, पर शेष में सब युवा बर्बाद हो गए। फाईनेंस कम्पनियों ने अन्दर ही अन्दर जैसलमेर को फाइनेंस बंद कर ब्लेक-लिस्ट कर दिया। अब ऊर्जा कम्पनियों ने अपने पांव इतने मजबूत कर लिये कि राजनीति, समाज और अफसरशाही उनके संकेतों पर नाच रहे है और कॉरपोरेटी-पूंजीवादी सम्पूर्ण जिले को अपनी गिरफ्त में ले चुका है।
ऐसे में और क्या हो सकता है, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। समाज वैज्ञानिकों का मानना है जब मनुष्य के जीवन निर्वाह के साधन समाप्त हो जाते हैं, तो वह अपराध की राह पर चल पड़ता है। चारागाह और पशुपालन नहरी खेती के कारण बर्बाद हो गए थे, शेष को कम्पनियों ने उजाड़ दिया था। युवा करता भी तो क्या करता ? कुंठित और हताश युवा-वर्ग ने जीवन-निर्वाह के लिए अपराधों की राह पकड़ी। केबल चोरी की घटनाएं इन भटके युवाओं का जीवन पथ बन गयी। समाज के बुर्जुगों का विरोध कुछ नहीं कर सका, क्योंकि इससे युवाओं को जबरदस्त आर्थिक आधार मिल रहा था और वे इस अन्धेरी राह की चमक और चकाचौंध में खो गए। समाज में जाति विशेष के युवाओं की बदनामी बढ़ने लगी, पर इससे कम्पनियों को कोई लेना देना नहीं था।
चोरियों का हर्जाना बीमा कम्पनियों पर डाल दिया गया। जो निवेशक थे वे इस सबसे हतप्रभ रह गए क्योंकि आखिरकार नुकसान उन्हें ही होता था। पवन ऊर्जा कम्पनियां तो दो बिल्लियों के बीच एक बंदर की तरह व्यवहार कर रही थी और दोनों को ही ठग रही थी। जब निवेशकों ने इन पवन ऊर्जा कम्पनियों पर दबाव बनाना शुरू किया, अपनी विंड मिल्स की सुरक्षा और उत्पादन पर सवाल खड़े करने शुरू किये तो कपनियों ने दूसरा रास्ता अख्तियार कर लिया और उन्होंने निवेशकों का पैसा अन्यत्र लगाना शुरू कर दिया। निवेशकों को सब्सिडी और उत्पादन के लाभ समझा कर उनके मार्केटिंग के लोग कम्पनियों का बाजार साध रहे है। इधर केबल चोरी की घटनाएं बढ़ रही थी। पर तंग आकर निवेशकों का इन पवन ऊर्जा कपनियों से मोहभंग होने लगा और उन्होंने कपनियों के पैसे रोकने शुरू कर दिए। कम्पनियों ने तो सरकार तक को अपनी जेब में रख छोड़ा था।
जैसलमेर की घटनाओं को जाति विशेष के युवाओं के माथे गढ़ा। स्थानीय प्रशासन और राजनीति ने मिलकर हथियारों से युक्त गाड़ियां और होमगार्ड जवानों के साथ इस जाति विशेष के युवकों की अंधाधुंध धर-पकड़ शुरू कर दी गई। भागते हुए युवाओं पर गोलियां चलाई जाने लगी। इससे भागते हुए एक युवा को गोली लगी और वह मौत के मुंहमें चला गया।
रोजगार और रोजी रोटी के छिन जाने से केबल चोरियां और अपराध बढ़े है इस और किसी ने नहीं सोचा। कशमीर में आतंकवादियों तक को मुख्यधारा में लाने के लिए रोजगार के कार्यक्रम खोले गए लेकिन दूसरी और राष्ट्र भक्त और सीमारक्षक इन राजपूत युवाओं पर गोलिया चलाई गई और हथियारों के बल पर इन्हें दबाया गया। हिस्ट्री-सीट खोल कर उन्हें जेलों में भेजा जाने लगा पर किसी ने भी यह नहीं सोचा कि रोजगार की अभाव में युवा भटकता है। आज आदिवासी क्षेत्रों का युवा नक्सली क्यों हो रहा है। इसलिए कि उनसे जंगल छिन लिए गए। यहां भी वही हो रहा है। उसके पहाड़ों तक में पंखे लगा दिये गए है। जे.सी.बी. द्वारा खेतों को खोद कर (मुरड़ निकालने के कारण) उन्हें गड्ढों में तब्दील कर दिया गया है। पशुपालन वाले चारागाह तथाकथित मुरबों के नाम पर नष्ट कर दिए गए है। ऐसे में भूख, अभाव और रोजगार विहीन युवा अपराधिक राहों पर नहीं भटकेगा तो कहां जायेगा? शहर में बैठे बुद्धिजीवी एवं पत्रकारों ने क्या कभी यह जानने का प्रयास किया है? यदि समय रहते इन सब को नहीं सुना गया तो कल को इस शांत रेत-धरा पर नक्सली और आंतकवादी दस्तकें भी सुनाई दे सकती है। इन पवन ऊर्जा कम्पनियों को जो दायित्व निर्वाह करने थे, उसकी तरफ उन्होंने तांका तक नहीं। पंखा लगाने के साथ उन्हें कई पेड़ लगाने थे, ताकि पर्यावरण के नुकसान की भरपाई हो सके। पर अगर पंखों की संख्या देखी जाये तो पंखों की लगी हुई संख्या के आधार आज रेगिस्तान में लगभग 80 हजार पेड़ लहराते खड़े होते। पर दायित्व विहीन इन ऊर्जा कपनियों ने न केवल उत्तरदायित्व विहीन आचरण किया वरन् वे मजदूरी भी स्थानीय लोगों को नहीं देते हैं। वे छतीसगढ़ बिहार से मजदूर लाते हैं जिसका स्थानीय संस्कृति से कोई लगाव नहीं है। बाहर से आए इन मजदूरों ने गूगल, रोहिड़ा, खेजड़ी, कुम्बटिया जैसे अनमोल पेड़ पौधों की कटाई करनी शुरू कर दी और वे इसे चूल्हे जलाकर नष्ट कर रहे हैं। औषधीय और भोजन में खाद्य पदार्थ देने वाली व पवित्र मानकर पूजी जाने वाली वनस्पति नष्ट होने की कगार पर पहुंच गई है। और कोढ़ में खाज कर तरह पंखों की पैकिंग इस सुनहरी धरती पर फैल रही है। इस प्लास्टिक को खाकर थारपारकर नस्ल की गायों के लिए जीवन संकट में आ गया है। इन कपनियों ने यहां के सामाजिक जीवन की शांति भी भंग कर दी। खेतों और पशुओं के पीछे निश्चित विचरण करने वाली स्त्रियों और बालक बालिकाओं का जीवन भी अशांत और खतरे में पड़ गया है। शहरी-संस्कृति में पड़े लोगों का स्थानीय संस्कृति से कोई लगाव नहीं होता है इसलिए हमारी आंचलिकता की संस्कृति ही खतरे में पड़ गई है। समय रहते यदि यहां के निवासियों ने इस बारे में नहीं सोचा तो फिर यहां का जीवन ही संकट में पड़ जायेगा। हमारी पहचान ही विलुप्त हो जायेगी। इसलिए आवश्यक है कि समाज नेता और आम आदमी सोचे कि
(1) क्या अपराधियों की कोई जाति होती है? बहु संख्यक राजपूतों को ही इन अपराधों से क्यों जोड़ा जाता है?
(2) जैसलमेर की मूल जीवन धड़कन पशुपालनको क्या बचाया जा सकेगा?
(3) चारागाहों में ही गोडावण पलती थी क्या ये चरागाह इन पवन ऊर्जा कम्पनियों की भेंट चढ़ जायेंगे?
(4) क्या इन कम्पनियों द्वारा कमाई जा रही अकूत सम्पदा में से जनकल्याण के कार्य भी सम्पादित होंगे ?
(5) क्या लाभ के कारण यहां बाहरी मजदूर आते रहेंगे और यहां का युवा उपेक्षित रहेगा?
(6) क्या अज्ञान और रोजगार न होने के कारण ये पथ-भ्रष्ट युवा जेलों में ही सड़ते रहेगें ?
हम नक्सलियों और आतंकवादियों से वार्ताएं और समझौते कर सकते हैं तो क्या कभी इन निर्दोष अज्ञानियों के बाबत भी सरकारें विचार करेगी ? मैं जानता हूं इन सुलगते सवालों की छाती पर ये कम्पनियों बैठी है और इन सवालों के जवाब भी शीघ्र नहीं मिलेंगे, तब क्या यह सब इसी प्रकार चलता रहेगा? पर्यावरण, पर्यटन, पवित्रता को नष्ट करने वाली इन कम्पनियों की करतूतों को समाज ही रोक सकता है। मैं समाज की शक्तियां का आहवान करता हूं कि वे आगे आएं और इन भस्मासूरी कम्पनियों के पंजों को मरोड़कर उन्हें उनकी औकात दिखाए।
-उपेन्द्रसिंह राठौड़
ये जातिवाद की इंतेहा है । एक जाति विशेष के लोग जिस तरह के हथकंडे अपना रहे हैं उसके परिणाम घातक सिद्ध होंगे।
लेख पढ़कर बहुत कुछ जानने को मिला हालात को देख कर ये लग रहा है की स्थति बड़ी विकट हो गयी है
सही है रतनसिंहजी
सारी समस्याओं की जड़ बेरोजगारी ही दिखाई देती है अगर युवाओं को रोजगार मिले तो वे दिग्भ्रमित नहीं होंगे। यह आलेख आज भी प्रासंगिक है। साझा करने के लिए आभार।
राजपूत कोई सामान्य मांस हड्डियों से बना खून का लोथ नहीं है अपितु विश्वपुरूष,महान सभ्यता का वाहक,संस्कारों का महाकोश है।
जिसकी एक हुंकार परमाणु परीक्षण से कम नहीं थी
जिसका आंख उठाकर देखना सूरज की आग से कम नहीं था।
अफसोस
नपुंसक पैदा हो गये,हमारे घरो मे,हम जैसे
लेख पढ़कर बहुत कुछ जानने को मिला हालात को देख कर ये लग रहा है की स्थति बड़ी विकट हो गयी है
सारी समस्याओं की जड़ बेरोजगारी ही है अगर युवाओं को रोजगार मिले तो वे दिग्भ्रमित नहीं होंगे। आलेख प्रासंगिक है।
Jo bhi apne sanskriti sanskar chhodta hai o sabhyata samaj nast ho jata hai hajaro saal ka itihas dekh ligiye. VIKAS SINGH