नींव मजबुत कराे,
दरारे आ रही मीनाराे में ।
दरारे आ रही मीनाराे में ।
समझदार काे नसीयत काफी है,
कुछ इसाराे में ।
सुई आम से, खास हाे गई,
अब गुण कहां तलवाराे में ।
अब लुट गया गुलस्ता,
भँवरे राे रहे बहारो में ।
बुजु्र्ग बेगाने हाे गये,
अपने ही परिवाराे में ।
घाेडे़ भी अड़ने लगे अब,
कमीया हाे गयी सवाराे में ।
अपने ही लूट रहे इज्जत,
अपनाे की बाजारो में ।
चुने में मिट्टी ज्यादा है,
तभी, छेद हाे गये दिवाराे में ।
हे मानुष क्याें जकड़ रहा,
राेज स्वार्थ की जन्जीराे में ।
गहराईयो में मिलते है हीरे,
क्या पडा़ किनाराे में ।
प्रेम सुख शांति चली गई कहां,
मन नहीं भरता प्याराे में ।
महेन्द्र अकेला हाे रहा मानव,
क्याें अपने ही परिवाराे में ।
कवि महेन्द्र राठौड़ “जाखली”
माेबाईल न.9928007861
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