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दीनता और हीनता ही है पतन की जड़

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कुँवरानी निशा कँवर नरुका
यदि कोई व्यक्ति रास्ते में चलते चलते ठोकर खा जाये, और लड़खड़ा कर गिर जाये तो यह एक सामान्य घटना है | ठोकर चाहे रास्ते में पड़े किसी पत्थर से लगी हो या किसी ने टंगड़ी मारी हो,फिर भी परिणाम तो गिरना ही होगा |लेकिन गिरने के बाद उठने का प्रयत्न ही ना करे यह “हीनता और दीनता” है |और यह एक असाध्य रोग है ,और इसी रोग का परिणाम होता है कि वह व्यक्ति को उठने के प्रयत्न के बजाय उसी स्थान पर पड़ा पड़ा,कोसता है उस पत्थर को,वह कोसता उन लोगों को जिन्होंने उस पत्थर को वहां जाने अनजाने में पटक दिया हो,वह कोसता है उस व्यक्ति को जिसने उसे अपने स्वार्थ के लिए टंगड़ी मारी हो,और वह कोसता है उन परिस्थितियों को जिसके कारण यह सब हुआ |
किन्तु वह फिर भी उठने का प्रयत्न नहीं करता क्योंकि उसकी अधिकांश उर्जा केवल दूसरे लोगों और परिस्थितियों को जिम्मेदार ठहराए जाने में खर्च हो जाती है | उसके उसी स्थान पर पड़ा होने के कारण पड़े हुए में दो लात हर कोई मार जाता है |जब उसमे इन लात मारने वालो का विरोध करने के लिए भी उर्जा और शक्ति नहीं बचती ,तब उसे मुसाफिर मरा हुआ मान लेते है,| किन्तु उसी रास्ते पर उसी जैसे असावधान लोग और भी मुसाफिर होते है जो स्वयं इसी व्यक्ति से ठोकर खा जाते है और वे भी उसी दीनता और हीनता की डायन के कब्जे में आ जाते है |और फिर यह पूरा पथ एक विकट और अगम्य पथ हो जाता है |
और इस तरह से केवल एक -दो व्यक्तियों में पनपी हीनता और दीनता से पूरा समाज और राष्ट्र पतन के गहरे आगोश में समां जाता है |तब यह गिरे हुए, पतित लोग अपने मन मे नफरत और कुंठा पाल लेते है, ऐसे लोगों के प्रति ,और ऐसी परिस्थितियों के प्रति |और इस नफरत के कारण उने हर वो बात अच्छी लगती है जिसमे उन पत्थरो ,उन्हें वहाँ जाने अनजाने में पटकने वाले लोगो को , और उन परिस्थितोयो के विरुद्ध कुछ कहा गया हो |
जो आज दलितों के तथाकथित हितेषी लोगो धर्म इतिहास और स्वस्थ परम्पराओं को खुले आम कोसते रहते है | उनमे कोई कहने लगता है वहां “आगे पत्थर है कृपया संभल चलिए” का चेतावनी बोर्ड नहीं लगा था, कोई कहता है की टंगड़ी मारने वालें व्यक्ति को सजा नहीं दी गयी थी इसलिए अब उसके वंशजो को सजा दी जाये ,कोई कहता है जो नहीं गिरे थे संभल कर निकल गए थे उन्हें भी एक बार गिरने की पीड़ा अनुभव करायी जाये, कोई कहता है उस रास्ते पर गिरे लोगों को वहीँ पर भोजन और सुविधाए (आरक्षण की मलाई) उपलब्ध करायी जाये कोई कहता है कि उस रास्ते को ही सदा के लिए बंद कर दिया जाये (वर्ण-व्यवस्था की समाप्ति) |जैसे इसमें उस मार्ग का इसमें कोई दोष हो | किन्तु इतना सभी कुछ होने और चिल्ला-चिल्ला कर यह प्रचार और प्रसार करने के बाद भी क्या वह पतित और गिरे हुए आदमी और समाज का कोई हित साधन हो पायेगा क्या ?????
शायद बिलकुल भी नहीं ! क्योंकि जो गिरा है उसमे इतनी दीनता और हीन भावना भरी हुयी है कि वह दीनता और हीन भावना उसे उठ खड़े होने की दिशा में सोचने के लिए कोई सकरात्मक उर्जा का संचार नहीं होने देती है |जिसका परिणाम होता है कि उत्थान के लिए सकारात्मक उर्जा और शक्ति का कोई संचय ही नहीं कर पा रहा है| उसकी सारी कि सारी उर्जा केवल और केवल निर्थक नफ़रत और कुंठा में खर्च हो रही होती है |उसके पतन का, उसके ठोकर खाकर गिरने का, वास्तविक कारण जब तक वह स्वयं में नहीं खोजेगा कि, वह स्वयं ही असावधानी से चल रहा था ,उसका चित्त शायद ठिकाने पर नहीं था और वह सतर्कता पूर्वक नहीं चल रहा था |तब तक उसमे स्वाभिमान का उदय होना संभव ही नहीं होगा और उत्थान के लिए स्वाभिमान और अपने आप पर गर्व करना और अपने में कमियां खोजना पहली शर्त है |
इसीलिए सबसे पहले अपनी हीनता और दीनता से छुटकारा पाने का सफल प्रयत्न करना पड़ेगा| तभी यह सर्वत्र पतन को प्राप्त हो चुका समाज उत्थान की और उन्मुख हो पायेगा |और इसमें राष्ट्र और सर्व समाज का हित भी है |

” जय क्षात्र-धर्म “

कुँवरानी निशा कँवर नरुका
श्री क्षत्रिय वीर ज्योति

8 COMMENTS

  1. सही चिंतन |
    अपने आपको दलित हितेषी कहने वाले राजनैतिक दल सिर्फ वोटों की फसल काटने के लिए इस शब्द का इस्तेमाल करते है , पर वोटों की फसल के लिए इस शस्त्र के इस्तेमाल से सामाजिक एकता को जो नुक्सान हो रहा है और हुआ है वो आने वाली कई सदियों तक पाटा नहीं जा सकेगा |

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