भाग दो से आगे……
अब राजा चौबोली के महल की खिड़की से बोला-“दो घडी रात तो कट गयी अब तूं ही कोई बात कह ताकि तीसरा प्रहर कट सके|”
खिड़की बोली- “ठीक है राजा ! आपका हुक्म सिर माथे, मैं आपको कहानी सुना रही हूँ आप हुंकारा देते जाना|”
खिड़की राजा को कहानी सुनाने लगी-“एक गांव में एक ब्राह्मण व एक साहूकार के बेटे के बीच बहुत गहरी मित्रता थी|जब वे जवान हुए तो एक दिन ससुराल अपनी पत्नियों को लेने एक साथ रवाना हुए कई दूर रास्ता काटने के बाद आगे दोनों के ससुराल के रास्ते अलग अलग हो गए| अत: अलग-अलग रास्ता पकड़ने से पहले दोनों ने सलाह मशविरा किया कि वापसी में जो यहाँ पहले पहुँच जाए वो दूसरे का इंतजार करे|
ऐसी सलाह कर दोनों ने अपने अपने ससुराल का रास्ता पकड़ा| साहूकार के बेटे के साथ एक नाई भी था| ससुराल पहुँचने पर साहूकार के साथ नाई को देखकर एक बुजुर्ग महिला ने अन्य महिलाओं को सलाह दी कि -“जवांई जी के साथ आये नाई को खातिर में कहीं कोई कमी नहीं रह जाए वरना यह हमारी बेटी के सुसराल में जाकर हमारी बहुत उलटी सीधी बातें करेगा और इसकी बढ़िया खातिर करेंगे तो यह वहां जाकर हमारी तारीफों के पुरे गांव में पुल बांधेगा इसलिए इसलिय इसकी खातिर में कोई कमी ना रहें|
बस फिर क्या था घर की बहु बेटियों ने बुढिया की बात को पकड़ नाई की पूरी खातिरदारी शुरू करदी वे अपने जवांई को पूछे या ना पूछे पर नाई को हर काम में पहले पूछे, खाना खिलाना हो तो पहले नाई,बिस्तर लगाना हो तो पहले नाई के लगे| साहूकार का बेटा अपनी ससुराल में मायूस और नाई उसे देख अपनी मूंछ मरोड़े| यह देख मन ही मन दुखी हो साहूकार के बेटे ने वापस जाने की जल्दी की| ससुराल वालों ने भी उसकी पत्नी के साथ उसे विदा कर दिया| अब रास्ते में नाई साहूकार पुत्र से मजाक करते चले कि- ” ससुराल में नाई की इज्जत ज्यादा रही कि जवांई की ? जैसे जैसे नाई ये डायलोग बोले साहूकार का बेटा मन ही मन जल भून जाए| पर नाई को इससे क्या फर्क पड़ने वाला था उसने तो अपनी डायलोग बाजी जारी रखी ऐसे ही चलते चलते काफी रास्ता कट गया| आधे रास्ते में ही साहूकार के बेटे ने इसी मनुहार वाली बात पर गुस्सा कर अपनी पत्नी को छोड़ नाई को साथ ले चल दिया|
इस तरह बीच रास्ते में छोड़ देने पर साहूकार की बेटी बहुत दुखी हुई और उसने अपना रथ वापस अपने मायके की ओर मोड़ लिया पर वह रास्ता भटक कर किसी और अनजाने नगर में पहुँच गयी| नगर में घुसते ही एक मालण का घर था, साहुकारनी ने अपना रथ रोका और कुछ धन देकर मालण से उसे अपने घर में कुछ दिन रहने के लिए मना लिया| मालण अपने बगीचे के फूलों से माला आदि बनाकर राजमहल में सप्लाई करती थी| अब मालण फूल तोड़ कर लाये और साहुकारनी नित नए डिजाइन के गजरे, मालाएं आदि बनाकर उसे राजा के पास ले जाने हेतु दे दे|
एक दिन राजा ने मालण से पुछा कि -“आजकल फूलों के ये इतने सुन्दर डिजाइन कौन बना रहा है ? तुझे तो ऐसे बनाने आते ही नहीं|
मालण ने राजा को बताया- “हुकुम! मेरे घर एक स्त्री आई हुई है बहुत गुणवंती है वही ऐसी सुन्दर-सुन्दर कारीगरीयां जानती है|
राजा ने हुक्म दे दिया कि- उसे हमारे महल में हाजिर किया जाय| अब क्या करे? साहुकारनी ने बहुत मना किया पर राजा का हुक्म कैसे टाला जा सकता था सो साहुकारनी को राजा के सामने हाजिर किया गया| राजा तो उस रूपवती को देखकर आसक्त हो गया ऐसी सुन्दर नारी तो उसके महल में कोई नहीं थी| सो राजा ने हुक्म दिया कि -“इसे महल में भेज दिया जाय|”
साहुकारनी बोली-” हे राजन ! आप तो गांव के मालिक होने के नाते मेरे पिता समान है|मेरे ऊपर कुदृष्टि मत रखिये और छोड़ दीजिए|
पर राजा कहाँ मानने वाला था, नहीं माना, अत: साहुकारनी बोली-” आप मुझे सोचने हेतु छ: माह का समय तो दीजिए|”
राजा ने समय दे दिया साथ ही उसके रहने के लिए गांव के नगर के बाहर रास्ते पर एक एकांत महल दे दिया|साहुकारनी रोज उस महल के झरोखे से आते जाते लोगों को देखती रहती कहीं कोई ससुराल या पीहर का कोई जानपहचान वाला मिल जाए तो समाचार भेजें जा सकें|
उधर रास्ते में ब्राह्मण का बेटा अपने मित्र साहूकार का इन्तजार कर रहा था जब साहूकार को अकेले आते देखा तो वह सोच में पड़ गया उसने पास आते ही साहूकार के बेटे से उसकी पत्नी के बारे में पुछा तो साहूकार बेटे ने पूरी कहानी ब्राह्मण पुत्र को बताई|
ब्राह्मण ने साहूकार को खूब खरी खोटी सुनाई कि- ‘बावली बूच नाई की खातिर ज्यादा हो गयी तो इसमें उसकी क्या गलती थी ? ऐसे कोई पत्नी को छोड़ा जा सकता है ?
और दोनों उसे लेने वापस चले, तलाश करते करते वे दोनों भी उसी नगर पहुंचे| साहुकारनी ने महल के झरोखे से दोनों को देख लिया तो बुलाने आदमी भेजा| मिलने पर ब्राह्मण के बेटे ने दोनों में सुलह कराई| राजा को भी पता चला कि उसका ब्याहता आ गया तो उसने भी अपने पति के साथ जाने की इजाजत दे दी|और साहूकार पुत्र अपनी पत्नी को लेकर घर आ गया|”
कहानी पूरी कर खिड़की ने राजा से पुछा-” हे राजा! आपके न्याय की प्रतिष्ठा तो सात समंदर दूर तक फैली है अब आप बताएं कि -“इस मामले में भलमनसाहत किसकी ? साहूकार की या साहुकारनी की ?
राजा बोला-” इसमें तो साफ़ है भलमनसाहत तो साहूकार के बेटे की| जिसने छोड़ी पत्नी को वापस अपना लिया|
इतना सुनते ही चौबोली के मन में तो मानो आग लग गयी हो उसने राजा को फटकारते हुए कहा-
“अरे अधर्मी राजा! क्या तूं ऐसे ही न्याय कर प्रसिद्ध हुआ है ? साहूकार के बेटे की इसमें कौनसी भलमनसाहत ? भलमनसाहत तो साहूकार पत्नी की थी| जिसे निर्दोष होने के बावजूद साहूकार ने छोड़ दिया था और उसे रानी बनने का मौका मिलने के बावजूद वह नहीं मानी और अपने धर्म पर अडिग रही|धन्य है ऐसी स्त्री|”
राजा बोला- ” हे चौबोली जी ! आपने जो न्याय किया वही न्याय है|”
बजा रे ढोली ढोल|
चौबोली बोली तीजो बोल||
और ढोली ने नंगारे पर जोर से ‘धें धें” कर तीन ठोक दी|
क्रमश:…..
nice
kafi aachi story
इब चौथा बोल की बाट है। बोल चौबोली बोल।
अब तो चौथे का इंतज़ार है।
रोचक, अब चौथी की बारी..
रोचक बढ़िया कहानी,,,,,,सुंदर प्रस्तुति,,,,
MY RECENT POST:…काव्यान्जलि …: यह स्वर्ण पंछी था कभी…
कोई सवा महीने बाद ब्लॉग जगत में लौटा हूँ। पहले की दो कडियॉं नहीं पढ पाया। तीसरी से पहली दोनों कडियों का अनुमान भर लगा रहा हूँ।
लोक कथाऍं, न्यूनाधिक सब जगह की एक जैसी ही होती हैं। सो, यह कथा भी मुझे अपनी ही लगी।
Good….one….hkm….. Now waiting for last part…..!! 🙂
वाह क्या मजेदार किस्से लिखते हो अब तो चौथी कड़ी का इंतज़ार है ,khotej.blogspot.com
KAHANI ACHI LAGI AGLE KADI KA INTJAR HAI……………..
bahut badiya kahani hai………..aasha hai suspense jaldi khatam hoga aur last part jald aayega