शूद्र शाब्दिक दृष्टि से आशुद्रव शब्द से व्युत्पित है जिसका अर्थ है शीघ्र ही द्रवित यानि पिघल जाना | यानि जल्दी ही अपने को और में समिलित कर लेना | द्रवित होने वाला पदार्थ किसी भी अन्य पदार्थ के साथ अपने को समाहित कर सकता है | यह बहुत उच्च कोटि के व्यक्तियों में ही समायोजन का गुण होता है | शूद्र के बारे में पितामह भीष्म ने कहा कि यदि किसी के कुल में कोई श्राद्ध करने वाला न हो तो उसके शूद्र को भी यह अधिकार है क्योंकि शूद्र तो पुत्र तुल्य हो है | कुछ लोगो का तर्क है कि शूद्रों कि उत्पत्ति श्री भगवान के चरणों से हुयी है इसलिए यह नीचें है उनसे मै यह पूंछना चाहती हूँ कि “वे लोग श्री भगवान के चरणों का पूजन करते है यह कि मुख और हृदय का ?” यदि चरणों का ही तब तो शूद्र अति-आदरनीय और पूज्य हुए ना ! हम अपने गाँव में आज भी अनेक परम्पराओं पर शूद्रों का पूजन करते है चाहे वो मकर-सक्रांति हो या कोई भी शुभ कार्य उसमे सबसे पहले मेहतर और महत्रानीजी को ही नेग देकर उन्हें सम्मानित किया जाता है |
हम यदि भगवान श्री राम के समय से ही देखें तो पाएंगे कि दलितों के साथ शुरू से ही हम क्षत्रियों का व्यवहार बहुत ही सम्मान जनक रहा है | श्री राम के निषाद-राज के साथ मैत्री-पूर्ण सम्बन्ध केवट के प्रति सहदयता जग-जाहिर है| एक और भी बड़ा ही भाव-पूर्ण प्रशंग है कि भरतजी जब श्री राम से मिलने जारहे थे तो रस्ते में निषाद-राज मिले तो उन्होंने निषाद-राज से गले मिलने से यह कह कर मन कर दिया कि जिस गले से मेरे पूज्य और अराध्य श्री राम लग चुके है और वह उनका मित्र है उसके तो मै सिर्फ चरण स्पर्श ही कर सकता हूँ | इसके बाद श्री राम द्वारा वानर और भालू जैसी आदिम-जातियों के साथ मैत्री-पूर्ण संधि और उनकी ही सहायता से दैत्य-ब्राह्मणों (दिति और कश्यप ब्रह्माण ऋषि के वंशजो ) का संहार करके माता सीता को आजाद करवाया था |
उसके बाद राज-सरिथि अधिरथ और संजय को मंत्री का स्तर औरयह सर्व-विदित है कि सारथि सबसे बड़ा हितैषी और मित्र होता है |और अधिकांश सारथि शुद्र ही हुआ करते थे |अब इतना पुराणी बातों को यदि न भी याद करें तो भी महाराणा प्रताप कि सेना में भील जाति की न केवल भरमार थी बल्कि पूंजा राणा भील को राणा का दर्जा था और अंग-रक्षक दल के प्रमुखों में एक थे | मेवाड़ के राज्य-चिन्ह में राजपूत और भील दोनों को जगह देकर भीलों को सम्मानित किया गया है | फिर यह छुआछुत प्राचीन-काल से नहीं हो सकती और यह सास्वत भी नहीं है इसे निश्चित रूप से किन्ही राजनैतिक षड़यंत्र के तहत प्रचलित किया गया होगा | इसलिए यह बात शत प्रतिशत सही है कि यह छुआ-छूत किसी षड़यंत्र के तहत ही प्रचलित कि गयी, जिसमे हमारे राजनैतिक विरोधी जिनमें रावण और परशुराम के वंशजो का विशेष योगदान है| ने हमें हमारी प्राणों से भी प्रिय प्रजा, जिसके वास्तव में हम ऋणी है और दास हुआ करते थे , उसी के साथ हमारे ही हाथों से अन्याय करवाया है |
दुर्भाग्य कि हम आज भी अपने परंपरागत शत्रुओं को नहीं पहिचान कर ,नितांत भोली जनता जिसे अभी कुछ राहत और सम्मान की आशा की किरण दिखाई दी है ,उसी के विरुद्ध है |और अपने अतिप्राचीन काल से अलग-अलग तरीके से शत्रुता निभा रहे लोगो के मानसिक दास बनकर अपने पूर्वजों (राम, भीष्म , कृष्ण , बुद्ध , रामदेवजी तंवर , मल्लीनाथजी, गोगाजी चौहान, यहाँ तक कि वर्तमान समय में भी वि.प्र.सिंह जी) की बातें हमनें नहीं मानी और आज भी मानने को तैयार नहीं है | उस ही का परिणाम जिसकी रक्षा का भार हम क्षत्रियों पर था, उसी (दलितों) का हमने खूब उत्पीडन करना शुरू कर दिया है | जब जातीय छुआछुत हमारे समाज में जिसने भी, जब भी, जिस भी कारण से घुसाई, तो हमने उसे मृत्यू-दंड देना उचित न समझ कर उल्टा उसे ही सर पर बैठा लिया है | उसका परिणाम आज क्षत्रिय समाज में से कितनी ही जातिया अलग होगई और दलित जो हमारे पूर्वजो ने सर्वाधिक पूजनीय बताया था भी जानवरों जैसी स्थिति में पहुँच गया था | यह परिणाम था हमारी भूले थी केवल हमारी मानसिक दासता का |क्या हमने आज इस दासता से मुक्ति पाली है ,मुझे लगता है शायद नहीं | तो फिर देर किस बात कि पहचानों अपने शत्रुओं को और उस समय कि भूल को सुधारो, और जरुरत पड़े तो दंड दो उन मानवता के शत्रुओं को |
“जय क्षात्र-धर्म ” : कुँवरानी निशा कँवर नरुका : श्री क्षत्रिय वीर ज्योति
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