हजारों साल देश की राजनीति में दखल रखकर राज करने वाली क्षत्रिय जाति, जिसका सदियों राज करने के कारण नाम भी राजपूत पड़ा, 1947 में सत्ता हस्तांतरण के बाद 71 वर्ष बाद भी राजनैतिक रूप से दोराहे पर खड़ी है। अब प्रश्न उठता है कि इतने वर्षों बाद भी राजपूत जाति वोट तंत्र का महत्त्व क्यों नहीं समझ पाई ? जबकि सदियों तक राजनैतिक रूप से हासिये पर पड़ी जातियां आज लोकतंत्र में सत्ता का स्वाद ले रही है। राजपूत जाति ने इस देश के धर्म, अस्मिता, स्वतंत्रता, स्वाभिमान व संस्कृति को बचाये रखने के लिए एक से बढ़़कर एक बलिदान दिए। मातृभूमि की रक्षा के लिए राजपूत जाति सिर कटवाने में कभी पीछे नहीं रही, पर अफसोस आजादी के इतने वर्षों बाद भी लोकतंत्र में सिर गिनवाने के महत्त्व को आज तक नहीं समझ पाई। लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था से पहले देश में देशी रियासतों का शासन था। जिसमें राजपूत रियासतें प्रमुख थी। रियासती काल में आम राजपूत अपने राजा के प्रति वफादार रहा और राजपरिवार के लोगों को ही उसके जन्मजात व पारम्परिक नेतृत्व माना। आम राजपूत राजा का शासन व्यवस्थित चलाने व उसे सुरक्षित रखने में ही अपना कर्तव्य समझता रहा और उसी के निर्वहन में सतत प्रयासरत रहा। राजाओं ने राजनैतिक रूप से जो गलत सही निर्णय लिया, उसे शिरोधार्य कर लिया। कभी उस पर चिंतन-मनन करने की आवश्यकता ही नहीं समझी, क्योंकि आम राजपूत ने राजनैतिक रूप से निर्णय लेने, राजनीति करने का काम राजा के भरोसे छोड़ दिया और खुद राजनैतिक चिंतन-मंथन से दूर रहा।
यही कारण रहा है कि 1947 में राजाओं के हाथ से सत्ता हस्तांतरित होकर लोकतांत्रिक ताकतों के हाथों में पहुँच गई, तब आम राजपूत अपने पारम्परिक राजनैतिक नेतृत्व की ओर ताकता रहा। आजादी के बाद सत्ता में आई कांग्रेस सरकार ने सत्ता पर अपनी पकड़ बनाये रखने के लिए जिनसे चुनौती मिलने की आशंका थी, उनके खिलाफ उन्हें कमजोर करने के लिए कई हथकंडे अपनाये। इसी कड़ी में राजाओं व जागीरदारों को कमजोर करने के लिए उनकी ताकत आम राजपूत की कृषि भूमि छीनकर दूसरों में बाँट दी और राजपूतों को प्रताड़ित व कमजोर करने के लिए तरह तरह के हथकंडे अपनाये। पर अफसोस उस वक्त भी आम राजपूत अपने पारम्परिक नेतृत्व राजाओं व जागीरदारों की ओर देखता रहा। जबकि राजा व जागीरदार अपने महल व जमीनें बचाने व प्रिवीपर्स व जागीरों का मुआवजा हासिल करने में व्यस्त रहे। आम राजपूत के हितों पर उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया। इतना होने के बावजूद भी राजपूत तत्कालीन परिस्थिति को नहीं समझ पाया, जबकि क्षत्रिय युवक संघ के झंडे तले कुंवर आयुवानसिंहजी हुडील, तनसिंहजी बाड़मेर व उनकी टीम ने आम राजपूत की जागरूकता के लिए काफी काम किया। 1956 में आयुवानसिंहजी ने राजपूतों के खिलाफ सदियों से चल रहे षड्यंत्रों का पर्दाफास करने के साथ वर्तमान राजनीति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने के तरीकों पर ’’राजपूत और भविष्य’’ किताब लिखी, पर अफसोस जो पुस्तक आम राजपूत को दिशा देकर उसकी दशा सुधार सकती है, वह उपलब्ध होने के बावजूद राजपूत समाज उसे आत्मसात नहीं कर सका।
आजादी के बाद कई पूर्व राजघरानों के साथ आम राजपूत नेता भी राजनीति में उतरे। वर्षों तक पूर्व राजघराने जनता में राजनैतिक आकर्षण का केंद्र रहे, जिसे खतरा मानकर कांग्रेस ने उन्हें अपने साथ मिलाने का प्रयास किया और जो नहीं माने उनका दमन किया। इसी बीच राजपूत समाज से निकले कई आम राजपूत नेता राजनैतिक क्षितिज पर उभरे। राजस्थान में भैरोंसिंहजी शेखावत एक ऐसे ही नेता थे। वे आम गरीब राजपूत परिवार से थे और राजस्थान की राजनीति में चमकते सितारे के तौर पर उभरे। जो राजपूत जाति कभी राजाओं के पीछे थी, राजनैतिक रूप से राजाओं के नेपथ्य में जाने के बाद राजस्थान के राजपूतों ने भैरोंसिंहजी शेखावत का नेतृत्व स्वीकार करते हुए भारतीय जनता पार्टी का पल्ला थाम लिया। ठीक इसी तरह से देश के कुछ क्षेत्रों को छोड़ राजपूत भाजपा की हिन्दुत्त्व व राष्ट्रवादी विचारधारा से प्रभावित होकर भाजपा से जुड़ गए।
किसी भी राजनैतिक दल से जुड़ना अच्छी बात है और लोकतान्त्रिक व्यवस्था में किसी दल से जुड़ना ही पड़ता है, पर राजपूतों ने भारतीय जनता पार्टी के अलावा अन्य दलों के लिए अपने द्वार ही बंद कर दिए। भाजपा नेताओं ने राजपूतों के इस समर्पण को उनकी मानसिक गुलामी समझ लिया और भैरोंसिंहजी शेखावत जैसे नेता के न रहने पर राजपूतों की उपेक्षा शुरू कर दी। इसके पीछे भाजपा नेताओं की सोच रही कि राजपूत अब भाजपा के मानसिक गुलाम है और वे भाजपा छोड़कर कहीं नहीं जा सकते। इसके पीछे एक बड़ा कारण और है। राजस्थान में कांग्रेस व भाजपा दो ही दल प्रमुख है और राजपूत जागीरदारी उन्मूलन कानून के बाद से कांग्रेस से घृणा करते हैं। राजपूतों की कांग्रेस से इसी घृणा के चलते भाजपा नेताओं ने धारणा बना ली कि राजपूतों के पास भाजपा के समर्थन के अलावा कोई विकल्प ही नहीं। अतः उनका कोई काम करो ना करो, ये कहीं जाने वाले नहीं है।
राजपूतों की इतने वर्षों में यह बड़ी कमी रही कि उन्होंने लोकतंत्र में सिर गिनवाने के मूलमंत्र को कभी समझा ही नहीं। जबकि दूसरी जातियों ने लोकतंत्र के इस मर्म को लोकतंत्र आते ही समझ लिया और वोट की ताकत पर अपने जातीय हितों की रक्षा ही नहीं की, बल्कि इसी को सीढी बनाकर अपना वर्तमान व भविष्य भी संवार लिया। आज मुसलमानों और दलितों का तुष्टिकरण करने की राजनैतिक दलों में होड़ लगी है। कारण स्पष्ट है- उनके वोट बैंक की ताकत। पर राजपूत जाति वोट की इस ताकत को समझ ही नहीं पाई और बिना अपना हित देखे एक पार्टी के पल्लू से बंधी रही। इसी का नतीजा था कि संजय लीला भंसाली जैसे फिल्मकार ने हमारी राष्ट्रीय नायिका चितौड़ की महारानी पद्िमनी के इतिहास के साथ छेड़छाड़ कर फिल्म बनाने की हिमाकत ही नहीं की, बल्कि देशभर के राजपूत समाज द्वारा उग्र विरोध के बावजूद उसका प्रदर्शन करने में सफल रहा।
यह कितनी विडम्बना है कि जो राजनैतिक दल राजपूत वोट बैंक के दम पर सत्ता में आया, उसी के राज में एक फिल्म में राजपूत इतिहास को तोड़मरोड़ कर पेश कर राजपूत स्वाभिमान पर चोट की और सत्ता ने राजपूत स्वाभिमान को बचाने के लिए तनिक भी चिंता नहीं की। इसे राजपूतों की एक ऐसे दल से घोर उपेक्षा नहीं तो क्या कहेंगे ? जो दल राजपूतों के वोट बैंक के दम पर आज सत्ता की सीढियाँ चढ़ कर सिंहासन तक पहुंचा है। इस उपेक्षा का एक ही कारण है- एक दल का पल्लू पकड़कर बैठे रहना और छद्म हिन्दुत्त्व व छद्म राष्ट्रवाद के नारों पर आँख मूंदकर विश्वास कर लेना। वोट की राजनीति कैसे की जाती है इसकी प्रेरणा राजस्थान की जाट जाति से ली जा सकती है। जाटों ने आम धारणा बना दी कि जाट का वोट जाट को। इसी धारणा के वशीभूत कांग्रेस भाजपा जाटों को टिकट देती है। मजे की बात है कि पिछले कई वर्षों से जाटों को जोड़ने के लिए भाजपा ने कांग्रेस के जाट के सामने जाट को उतारा। ऐसे में जो जाट भाजपा के पारम्परिक वोटों से जीता उसकी जीत का श्रेय भी जाट जाति ले गई, भले ही उसने भाजपाई जाट को वोट नहीं दिया हो।
अब समय आ गया है राजपूतों को भी पार्टियों का लोभ व पार्टी का फायदा छोड़ अपना हित देखकर ही वोट देने की रणनीति अपनानी होगी। जहाँ जिस दल से राजपूत प्रत्याशी हो उसे ही वोट देने के साथ जहाँ राजपूत प्रत्याशी नहीं है वहां पार्टी लाइन से ऊपर उठकर उस प्रत्याशी को वोट देने की मानसिकता अपनानी होगी जो हमारा हितैषी हो, हमारी जाति के प्रति उसके मन में द्वेष ना हो। राजस्थान में पिछले चुनावों में राजपूतों ने पार्टी व राष्ट्रवाद के नाम पर ऐसे प्रत्याशियों को वोट देकर संसद में भेजा है जो मन में राजपूत जाति के प्रति विद्वेष की भावना रखते हैं और अपनी जातीय सभाओं में राजपूत जाति के खिलाफ जहर उगलते हैं।
रानी पद्मिनी फिल्म विवाद के बाद लग रहा है कि राजपूत जाति को अपनी राजनैतिक भूल का अहसास हुआ है, जिसका प्रदर्शन राजस्थान के तीन उपचुनावों के साथ उत्तरप्रदेश के कैराना उपचुनाव में देखने को मिला। भाजपा द्वारा राजपूत स्वाभिमान की रक्षा करने में रूचि ना लेने के कारण राजपूतों ने उक्त चुनावों में भाजपा को हरा दिया। इन चुनावों के नतीजों के बाद जहाँ भाजपा राजपूतों को मनाने में लगी है वहीं कांग्रेस भी राजपूत प्रत्याशी उतारकर राजपूतों को पार्टी से जोड़ने की रणनीति बना रही है। इससे पहले ना भाजपा को राजपूतों की चिंता थी, ना कांग्रेस को। क्योंकि राजपूत वोट की राजनीति समझ ही नहीं पाए थे, आज जब समझ चुके हैं तब सभी दल उनके आगे पीछे घूम रहे हैं। आशा है अब राजपूत जाति लोकतंत्र में सिर गिनवाने के मर्म को समझते हुए ही चुनावी मतदान करेगी।
राजपूतों को संघठित होने की जरुरत है ।
absolutely right sir, Rajput ka vote Rajput ko. East UP aur Central UP mein kuchh aisa hi hain.
Ab samaj jagruk karna hoga