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Saturday, September 30, 2023

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कहाँ से आता था राजाओं के पास इतना धन ?

बचपन से ही राजस्थान के किले, हवेलियाँ आदि देखने के बाद मन सोचता था कि उस राजस्थान में जहाँ का मुख्य कार्य कृषि ही था और राजस्थान में जब वर्षा ही बहुत कम होती थी तो कृषि उपज का अनुमान भी लगाया जा सकता है कि कितनी उपज होती होगी? सिंचाई के साधनों की कमी से किसान की उस समय क्या आय होती होगी? जो किसी राजा को इतना कर दे सके कि उस राज्य का राजा बड़े बड़े किले व हवेलियाँ बनवा ले| जिस प्रजा के पास खुद रहने के लिए पक्के मकान नहीं थे| खाने के लिए बाजरे के अलावा कोई फसल नहीं होती थी| और बाजरे की बाजार वेल्यु तो आज भी नहीं है तो उस वक्त क्या होगी? राजस्थान में कर से कितनी आय हो सकती थी उसका अनुमान शेरशाह सूरी के एक बयान से लगाया का सकता है जो उसने सुमेरगिरी के युद्ध में जोधपुर के दस हजार सैनिको द्वारा उसके चालीस हजार सैनिको को काट देने के बाद दिल्ली वापस लौटते हुए दिया था – “कि एक मुट्ठी बाजरे की खातिर मैं दिल्ली की सल्तनत खो बैठता|”

मेरा कहने का मतलब सिर्फ इतना ही है कि जिस राज्य की प्रजा गरीब हो वो राजा को कितना कर दे देगी ? कि राजा अपने लिए बड़े बड़े महल बना ले| राजस्थान में देश की आजादी से पहले बहुत गरीबी थी| राजस्थान के राजाओं का ज्यादातर समय अपने ऊपर होने वाले आक्रमणों को रोकने के लिए आत्म-रक्षार्थ युद्ध करने में बीत जाता था| ऐसे में राजस्थान का विकास कार्य कहाँ हो पाता ? और बिना विकास कार्यों के आय भी नहीं बढ़ सकती| फिर भी राजस्थान के राजाओं ने बड़े बड़े किले व महल बनाये, सैनिक अभियानों में भी खूब खर्च किया| जन-कल्याण के लिए भी राजाओं व रानियों ने बहुत से निर्माण कार्य करवाये| उनके बनाये बड़े बड़े मंदिर, पक्के तालाब, बावड़ियाँ, धर्मशालाएं आदि जनहित में काम आने वाले भवन आज भी इस बात के गवाह है कि वे जनता के हितों के लिए कितना कुछ करना चाहते और किया भी|

अब सवाल ये उठता है कि फिर उनके पास इतना धन आता कहाँ से था ?

राजस्थान के शहरों में महाजनों की बड़ी बड़ी हवेलियाँ देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि उनके पास धन की कोई कमी नहीं थी कई सेठों के पास तो राजाओं से भी ज्यादा धन था और जरुरत पड़ने पर ये सेठ ही राजाओं को धन देते थे| राजस्थान के सेठ शुरू ही बड़े व्यापारी रहें है राजा को कर का बहुत बड़ा हिस्सा इन्हीं व्यापरियों से मिलता था| बदले में राजा उनको पूरी सुरक्षा उपलब्ध कराते थे| राजा के दरबार में सेठों का बड़ा महत्व व इज्जत होती थी| उन्हें बड़ी बड़ी उपाधियाँ दी जाती थी| सेठ लोग भी अक्सर कई समारोहों व मौकों पर राजाओं को बड़े बड़े नजराने पेश करते थे|
कालेज में पढते वक्त एक ऐसा ही उदाहरण सुरेन्द्र सिंह जी सरवडी से सीकर के राजा माधो सिंह के बारे में सुनने को मिला था- राजाओं के शासन में शादियों में दुल्हे के लिए घोड़ी, हाथी आदि राजा की घुड़साल से ही आते थे| राज्य के बड़े उमराओं व सेठों के यहाँ दुल्हे के लिए हाथी भेजे जाते थे|

सीकर में राजा माधोसिंह जी के कार्यकाल में एक बार शादियों के सीजन में इतनी शादियाँ थी कि शादियों में भेजने के लिए हाथी कम पड़ गए| जन श्रुति है कि राजा माधो सिंह जी ने राज्य के सबसे धनी सेठ के यहाँ हाथी नहीं भेजा बाकि जगह भेज दिए| और उस सेठ के बेटे की बारात में खुद शामिल हो गए जब दुल्हे को तोरण मारने की रस्म अदा करनी थी तब वह बिना हाथी की सवारी के पैदल था यह बात सेठजी को बहुत बुरी लग रही थी| सेठ ने राजा माधो सिंह जी को इसकी शिकायत करते हुए नाराजगी भी जाहिर की पर राजा साहब चुप रहे और जैसे ही सेठ के बेटे ने तोरण मारने की रस्म पूरी करने को तोरण द्वार की तरफ तोरण की और हाथ बढ़ाया वैसे ही तुरंत राजा ने लड़के को उठाकर अपने कंधे पर बिठा लिया और बोले बेटा तोरण की रस्म पूरी कर| यह दृश्य देख सेठ सहित उपस्थित सभी लोग आवक रह गए| राजा जी ने सेठ से कहा देखा – दूसरे सेठों के बेटों ने तो तोरण की रस्म जानवरों पर बैठकर अदा की पर आपके बेटे ने तो राजा के कंधे पर बैठकर तोरण रस्म अदा की है|
इस अप्रत्याशित घटना व राजा जी द्वारा इस तरह दिया सम्मान पाकर सेठजी अभिभूत हो गए और उन्होंने राजा जी को विदाई देते समय नोटों का एक बहुत बड़ा चबूतरा बनाया और उस पर बिठाकर राजा जी को और धन नजर किया| इस तरह माधोसिंह जी ने सेठ को सम्मान देकर अपना खजाना भर लिया|

इस घटना से आसानी से समझा जा सकता है कि राजस्थान के राजाओं के पास धन कहाँ से आता था| राजाओं की पूरी अर्थव्यवस्था व्यापार से होने वाली आय पर ही निर्भर थी न कि आम प्रजा से लिए कर पर|

व्यापारियों की राजाओं के शासन काल में कितनी महत्ता थी सीकर की ही एक और घटना से पता चलता है- सीकर के रावराजा रामसिंह एक बार अपनी ससुराल चुरू गए| चुरू राज्य में बड़े बड़े सेठ रहते थे उनके व्यापार से राज्य को बड़ी आय होती थी| चुरू में उस वक्त सीकर से ज्यादा सेठ रहते थे| जिस राज्य में ज्यादा सेठ उस राज्य को उतना ही वैभवशाली माना जाता था| इस हिसाब से सीकर चुरू के आगे हल्का पड़ता था| कहते है कि ससुराल में सालियों ने राजा रामसिंह से मजाक की कि आपके राज्य में तो सेठ बहुत कम है इसलिए लगता है आपकी रियासत कड़की ही होगी| यह मजाक राजा रामसिंह जी को चुभ गई और उन्होंने सीकर आते ही सीकर राज्य के डाकुओं को चुरू के सेठों को लूटने की छूट दे दी| डाकू चुरू में सेठों को लूटकर सीकर राज्य की सीमा में प्रवेश कर जाते और चुरू के सैनिक हाथ मलते रह जाते| सेठों को भी परिस्थिति समझते देर नहीं लगी और तुरंत ही सेठों का प्रतिनिधि मंडल सीकर राजाजी से मिला और डाकुओं से बचाने की गुहार की|

राजा जी ने भी प्रस्ताव रख दिया कि सीकर राज्य की सीमाओं में बस कर व्यापार करो पूरी सुरक्षा मिलेगी| और सीकर राजा जी ने सेठों के रहने के लिए जगह दे दी, सेठों ने उस जगह एक नगर बसाया , नाम रखा रामगढ़| और राजा जी ने उनकी सुरक्षा के लिए वहां एक किला बनवाकर अपनी सैनिक टुकड़ी तैनात कर दी| इस तरह सीकर राज्य में भी व्यवसायी बढे और व्यापार बढ़ा| फलस्वरूप सीकर राज्य की आय बढ़ी और सेठों ने जन-कल्याण के लिए कई निर्माण कार्य यथा विद्यालय, धर्मशालाएं, कुँए, तालाब, बावड़ियाँ आदि का निर्माण करवाया| जो आज भी तत्कालीन राज्य की सीमाओं में जगह जगह नजर आ जाते है और उन सेठों की याद ताजा करवा देते है|

इस तरह के बहुत से सेठों द्वारा राजाओं को आर्थिक सहायता देने या धन नजर करने के व जन-कल्याण के कार्य करवाने के किस्से कहानियां यत्र-तत्र बिखरे पड़े| बुजुर्गों के पास सुनाने के लिए इस तरह की किस्सों की कोई कमी ही नहीं है| अक्सर राजा लोग ही इन धनी महाजनों से जन-कल्याण के बहुत से कार्य करवा लेते थे| बीकानेर के राजा गंगासिंह जी के बारे में इस तरह के बहुत से किस्से प्रचलित है कि कैसे उन्होंने धनी सेठों को प्रेरित कर जन-कल्याण के कार्य करवाये| वे किसी भी संपन्न व्यक्ति से मिलते थे तो वे उसे एक ही बात समझाते थे कि इतना कमाया, नाम किया पर मरने के बाद क्या ? इसलिए जीते जी कुछ जन-कल्याण के लिए कर ताकि मरने के वर्षों बाद तक लोग तुझे याद रखे| और उनकी बात का इतना असर होता था कि कुछ धनी सेठों ने तो अपना पुरा का पुरा धन जन-कल्याण में लगा दिया|

राजा गंगासिंह जी के मन में जन-कल्याण के लिए कार्य करने का इतना जज्बा था कि उन्होंने आजादी से पहले ही भांकड़ा बांध से नहर ला कर रेगिस्तानी इलाके को हराभरा बना दिया था| रेवाड़ी से लेकर बीकानेर तक उन्होंने अपने खजाने व सेठों के सहयोग से रेल लाइन बिछवा दी थी| दिल्ली के स्टेशन पर बीकानेर की रेल रुकने के लिए प्लेटफार्म तक खरीद दिए थे| और यही कारण है कि आज भी बीकानेर वासियों के दिलों में महाराज गंगासिंह जी के प्रति असीम श्रद्धा भाव है|
उपरोक्त कुछ किस्सों व राजस्थान में सेठों व राजाओं के संबंध में बिखरे पड़े किस्सों कहानियों से साफ़ जाहिर है कि राजाओं के पास जो धन था वह गरीब प्रजा का शोषण कर इकट्ठा नहीं किया जाता था बल्कि राज्य के व्यवसायियों द्वारा किये जाने वाले व्यापार से मिलने वाले कर से खजाने भरे जाते थे|

पर अफ़सोस आज के व्यवसायी जो सरकारों को अपनी जेब में रखने का दावा करते है वे जन-कल्याण के लिए खर्च करना तो दूर उल्टा सत्ताधारी नेताओं, मंत्रियों से मिलकर आम-गरीब जनता व देश के संसाधनों को लूटकर सरकारी खजाना खाली कर अपना खजाना भरने में लगे है|

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24 COMMENTS

  1. मैं तो जब भी किसी किले को देखती हूँ तो राजाओं की ठाठ-बाट के बारे में सोचने बैठ जाती हूँ …पिछले वर्ष जोधपुर का किला देखा तो उस पर एक आलेख भी लिखा ….. मेरे हिसाब से पैसा तो आम जनता का ही होता है ठीक आज की तरह जैसे हम जनप्रतिनिधियों को सरकार चलने के लिए चुनते हैं और वे अपने को जनता का सेवक कहते हैं लेकिन वास्तविक रूप से सेवक तो जनता ही होती हैं कुछ ऐसे है राजाओं का भी हाल था …कुछ ने अछे काम किये तो उसमें सबके बड़ी योगदान तो जनता का ही रहता है ….मन में जाने कितने ही ख्याल आ रहे है आपके पोस्ट पढ़कर ……
    बढ़िया चिंतन कराती प्रस्तुति

    • मारवाड़ में आकाल पड़ता रहता था, ये महल और किल्ले बनाने का मकसद आकाल के समय लोगो को काम देना होता था, इस तरह जनता को साल -दो साल के लिए काम और अनाज मिल जाता था ,ठीक आज के नरेगा की तरह !!

  2. बहुत सुंदर रचना…..वितीय प्रबंधन निसंदेह आज के अर्थशास्त्रियों की अपेक्षा रियासत काल में सुव्यवस्थित थी,व्यापारियों का यथोचित सम्मान करके उन्हें प्रेरित किया जाता था | "महाजन" शब्द केवल व्यापारियों के लिए प्रयुक्त होता था जिसका शाब्दिक अर्थ है-महान आदमी

  3. बहुत ही उम्दा और जानकारीपूर्ण लेख.
    आज के व्यवसाइयों और शासकों से सीख लेनी चाहिए.

    गर्व है उन राजाओं पर जिनकी बदोलत राजस्थान समृद्ध हुआ.

  4. बहुत ही सुन्दर और जानकारी पूरक रचना, धन्यवाद आपका, वन्देमातरम, जय श्री राम…

    मित्रो, वन्देमातरम, जय श्री राम, जगदम्ब. मेरे कुछ ब्लोग्स चल रहे हैं. जो की सामजिक, धार्मिक, पर्यटन, आदि विषय पर हैं. कृपया करके उन्हें पढ़े, और अपने विचार भेजिए. उनका नाम और वेब एड्रेस निम्नलिखित हैं.

    हमारा वैश्य समाज : http://praveengupta2010.blogspot.in/
    हमारे तीर्थ स्थान और मंदिर : http://praveenguptateerth.blogspot.in/
    भारत भारती : http://praveenguptabharatbharti.blogspot.in/
    हिन्दू हिंदी हिन्दुस्थान : http://praveenguptahindu.blogspot.in/
    घुमक्कड़ यात्री : http://praveenguptayatri.blogspot.in/
    वन्देमातरम : http://praveenguptavandematram.blogspot.in/

    मित्रों अपने देश, धर्म की रक्षा करो. माँ भारती आप लोगो को पुकार रही हैं. माँ भारती संकट में हैं. हमारे अपने ही लोगो के कारण आज ये हालात उत्पन्न हुए हैं. हम अपने घर के अंदर क्या हैं, कौन हैं, घर से निकलते ही अपना परिचय एक हिंदू, एक भारतीय के रूप में दे. तिलक, कलावा हमारी पहचान हैं. इन्हें हमेशा धारण करे. सोचो हम क्या थे, और क्या हो गए हैं. याद करो अपना गौरव पूर्ण इतिहास. शिव, राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, गुरु नानक, सम्राट विक्रमादित्य, चंद्रगुप्त मौर्य, चंद्रगुप्त विक्रमादित्य, समुद्रगुप्त, हर्षवर्धन, हेमू विक्रमादित्य, पृथ्वीराज चौहान, महाराना प्रताप, शिवाजी महाराज, गुरु गोविन्द सिंह, राजा रणजीत सिंह, वीर सावरकर, भगत सिंह, आज़ाद , लाला लाजपत राय, नेताजी सुभाष, को. इनकी गौरव पूर्ण विरासत, परंपरा को आगे बढाए. और माँ भारती का पुरातन वैभव फिर से लौटाए. भारत को फिर से सोने की चिड़िया बनाए.

    जय श्री राम, वन्देमातरम.

  5. आज भी सेठ लोग दिल खोलकर जनहित में पैसा लगते हैं। विदेश से आकर आपने गाँव में तालब ,बावड़ी,मंदिर आदि का काम करवाते हैं।

  6. राजपुताना में जनता से कर वसूलने के किस्से शायद ही कहीं मिलते हो …राजा-महाराजा अपनी जनता का भला बुरा सोचते थे। गंगा सिंह जी तो न्याय प्रिय इंसान रहे हैं। बहुत उम्दा पोस्ट, काफी कुछ सिखने को मिला।

    मेरी नयी पोस्ट पर आपका स्वागत है
    http://rohitasghorela.blogspot.in/2012/12/blog-post.html

  7. @रतन सिंह जी! आपकी पोस्ट ने मेरे काफी सवालों के जवाब हल कर दिए हैं, मेरे मार्क्सवादी मित्र जब भी मुझसे इस तरह के सवाल करते तो मैं हिचकिचाता था पर अब मैं भी उन्हें मुंह तोड़ जवाब दे पाऊंगा! आपका बहुत बहुत आभार!

  8. राजा महाराजाओं की आमदनी जनता से ही होती थी यह तो समझ आ रहा है . जनता गरीब हो या अमीर , राजा को देना ही पड़ता होगा. लेकिन इस धन में से कितना प्रजा पर और कितना अपनी भोग विलासिता पर खर्च होता होगा , यह हिसाब कभी समझ नहीं आया. वैसे भी राजाओं के ठाठ बाठ देखकर तो यही लगता है की अधिकांश धन स्वयं पर ही खर्च करते होंगे. हालाँकि कुछ राजाओं ने निश्चित ही मानव विकास के कार्य किये हैं.
    दिलचस्प विषय रहा यह.

  9. पुराने ज़माने के भारत के राजा और मंत्री सच में भारतीयों के भलाई के बारे में सोचते थे, शहर के शहर सोने से बनाये जाते थे, आखिर कार भारत को इसी लिए तो सोने की चिड़िया कहा जाता था । आज का भारत तो केवल उस पुराने भारत की छवि बनकर रह गया है , जहाँ आम जनता एक दुसरे को बाँट -बाँट कर एक दुसरे का मजाक उड़ाती है और प्रशासक सुवरो की तरह पैसा अपने मूँह में ठूस्ते हैं। जहाँ मीडिया आतंकवादी को सजा देने पर भी सवाल उठाती है, देश कल कहाँ था और आज किस गटर में पड़ा हैं ।

  10. yeh sunne me aya hain ki Rajputana ke Raja Maharaja ne kabhibhi apni janata se jabardasti se koi kar nahi vasula. Hamesha yeh dekha gaya hai ki Rajputana me saalo saal varsha nahi hoti thi tab Raja Maharaja apne Rajya mein koi na koi nirman karya karvate the jo ki aaj bhi unki smriti me shabut hai. Par jab Rajkosh khatm ho jata tha to bhi yeh karya apne vaiyaktik khajane se dhan ki apoorti karke pure kiye jate the. Aaj hum NREGA aur Sarkari Rojgar Yojnaon ko sarahate hain to un Rajput Rajaon ke is yogdan ko kyon kosate hai. Bade Mahal aur Kille jitni unki jarrorat thi usse jyada jaroot janata ko apne Rajya se palayan se rokne ki thi. Isi liye aaj bhi Rajsthan mein Raja, Maharaja, Thakuron aur Rajputon ko samman ki drishti se dekha jata hai.

  11. राजस्थान के राजाओं का लंबा इतिहास रहा है और उनमें से कई राजाओं का इतिहास तो वाकई प्रजारक्षक के रूप में रहा है लेकिन यह कहना भी गलत होगा कि सब वैसे भी थे !!

  12. सिर्फ कुछ ही राजा ऐसे थे जो न्याय प्रिय और प्रजा सेवक थे !अभी भी राजपूत बाहुल्य इलाको में दूसरी जातियों का जीना दूभर हो रखा हैं !

    • दूसरी छोटी जातियों को जो संरक्षण राजपूत बहुल इलाकों में मिलता है वह शायद ही कहीं मिलता हो |
      बचपन से आजतक गांव में देखता आया हूँ सुबह किसी दलित के यहाँ चाय बनाने को चाय पत्ती या शक्कर ना हो तो वह किसी राजपूत के घर की और ही रुख करता है क्योंकि उसे सिर्फ वहीँ से मिलने की आस होती है|
      हाँ ! आजकल नई पीढ़ी के दलितों को ऐसी जरुरत या तो कम होती है या फिर वे राजपूतों को झूंठे कोसने के चलते सहायता के लिए उधर रुख नहीं करते !!

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