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Friday, June 9, 2023

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कछवाहों का आमेर पर आधिपत्य : कछवाहा राजवंश का प्रारम्भिक इतिहास -2

पिछले से आगे….
1614 ई. में दक्षिण में ऐचिलपुर में महाराजा मानसिंह की मृत्यु होने पर आमेर में उत्तराधिकारी को लेकर एक अशान्तिपूर्ण स्थिति उत्पन्न हो गई। मानसिंह के वरीयताक्रम में दो पुत्रों जगतसिंह एवं दुर्जनसाल की मृत्यु उनके जीवनकाल से हो चुकी थी। उनका तीसरा पुत्र भावसिंह, जहांगीर की सेवा में था। इस समय जगतसिंह के प्रपौत्र जयसिंह का गद्दी पर हक था किन्तु जहांगीर ने राजपूतों के नियम के विरूद्ध मानसिंह के तीसरे पुत्र भावसिंह को 1614 ई. में आमेर का शासक बना दिया। जहांगीर ने भावसिंह को शाहजादा खुर्रम के साथ दक्षिण से मलिक अम्बर के विरूद्ध अभियान में भेजा। लम्बे समय तक सफलता न मिलने पर हताश और कुठाग्रस्त भावसिंह की 1621 ई. में मृत्यु हो गई। भावसिंह की मृत्यु के बाद राजा जयसिंह को 11 वर्ष की अल्प आयु में आमेर की गद्दी पर बैठाया। राजा जयसिंह को तीन मुगल सम्राटों क्रमशः जहांगीर, शाहजहां और औरंगजेब के दरबार में कार्य करने का अवसर मिला। जहांगीर के काल में 1623 ई. में जयसिंह द्वारा अहमदनगर के शासक मलिक अम्बर को परास्त करना और बाद में 1625 ई. में दलेलखां पठान को दबाने आदि में उसने अपने रणकौशल का परिचय दिया।1

मिर्जा राजा जयसिंह की मृत्यु के बाद 1667 ई. में महाराजा रामसिंह आमेर की गद्दी पर विराजमान हुए। महाराजा रामसिंह के काल में औरंगजेब के आदेश से अबूतरा आमेर के मंदिरों को नष्ट करने के लिए आया और 1680 ई. में आमेर राज्य में 66 मंदिरों को नष्ट कर दिया।2 1690 ई. में इनकी मृत्यु होने पर बिशन सिंह रामसिंह का पौत्र व किशनसिंह का पुत्र बिशनसिंह आमेर के सिंहासन पर बैठा। इनके समय आमेर में कोई विशेष प्रगति न हो सकी। काबुल के अभियान में पठानों के विद्रोह को दबाते समय 1700 ई. में इनकी मृत्यु हो गयी। बिशनसिंह के दो पुत्र विजयसिंह और जयसिंह इनमें से औरंगजेब ने विजय सिंह में जयसिंह प्रथम के गुण और प्रतिभा देखकर उसे जयसिंह का नाम दिया, जिसे डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने स्वीकार करते हुए लिखा है कि सम्भवतः सम्राट ने विजयसिंह में प्रथम जयसिंह की तुलना में वीरता और वाकपटुता को देखकर उनका नाम सवाई जयसिंह रख दिया क्योंकि वह जयसिंह से बढ़कर थे। इसके विपरीत छोटे भाई का नाम विजय सिंह रख दिया। इसी समय से जयपुर के समस्त राजा अपने नाम के पहले ‘सवाई’ पद का प्रयोग करने लगे।3

1700 ई. में सवाई जयसिंह द्वितीय आमेर के सिंहासन पर बैठे। आमेर और जयपुर के इतिहास में सवाई जयसिंह द्वितीय का काल सर्वाधिक महत्वपूर्ण काल माना गया है। 1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु के बाद इनके दो पुत्रों में उत्तराधिकारी संघर्ष में जयसिंह के भाई विजयंिसंह ने पहले से ही मुहज्जम का पक्ष लिया। इसलिए मुहज्जम जो बहादुरशाह के नाम से गद्दी पर बैठा उसने जयसिंह द्वितीय से असन्तुष्ट होकर उसे आम्बेर राज्य से पदच्युत कर उसके भाई विजयसिंह को आमेर का शासक बनाने की घोषणा की। जयसिंह ने अपने राज्य को बचाने के लिए जोधपुर की गद्दी हेतु अजीतसिंह से मिलकर मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह द्वितीय के साथ 25 मई, 1708 ई. को एक संधि हुई। इस संधि के अनुसार अमरसिंह की पुत्री चन्द्रकुमारी का विवाह जयसिंह के साथ इस शर्त पर हुआ कि इससे जो पुत्र उत्पन्न होगा वह आमेर का शासक होगा। इससे पूर्व जयसिंह को ईश्वरसिंह नामक पुत्र हो चुका था। अतः इस शर्त ने आगे चलकर जयपुर राजघराने में युद्ध व संघर्ष के भावी बीज बो दिए। इस संधि के द्वारा मेवाड़ और मारवाड़ सेवा की सहायता से सवाई जयसिंह द्वितीय 1708 ई. में पुनः आमेर की राजगद्दी को प्राप्त करने में सफल हो गये।

जयसिंह द्वितीय ने उत्तरोतर मुगल काल में बहादुर शाह, जहांदारशाह, फर्रूखसियर, रफी उद्घात मुहम्मद शाह आदि के समय अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाकर आमेर की प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित किया। 1708 ई. से 1727 ई. के मध्य उनके द्वारा मालवा की तीन बार सूबेदार काल में वहां मराठों के प्रभाव को कम करने, आगरा के आस-पास जाट नेता चूड़ामन व मुहकम के विद्रोह को दबाने का प्रयास किया अन्नतः सफलता प्राप्त की। 1727 ई. में सवाई जयसिंह ने जयपुर नगर को बसाकर नई राजधानी स्थापित की।

लेखक : भारत आर्य, शोधार्थी,  इतिहास एवं संस्कृति विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर

सन्दर्भ : 1. जहांगीरनामा, हिन्दी अनुवाद, पृ. 55, 46933. जहांगीरनामा, हिन्दी अनुवाद, पृ. 55, 469, 2. गंगासहाय, वंशप्रकाश, पृ. 140-141, 3. गोपीनाथ शर्मा, राजस्थान का इतिहास, पृ. 84

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4 COMMENTS

  1. मैंने आदि से अंत तक पूरा पड़ा । रोचक प्रस्तुति , सटीक एवं शोधपूर्ण लेख ने आँखें खोलदी । सादर साधुवाद

  2. शेखावत जी,
    आपने कछवाहों आमेर पर अधि्‍पत्य :कछवाहा राजवंश का प्रारंभिक इतिहास 2
    लिखने में बहुत ईमानदारी बरती है व भारत आर्य कि रिसर्च भी सही है लेकिन किर्तिराज व सुमित्र से से एकदम पहले वाले राजा प्रसेनजीत ढाका व उसके पुत्र वीरू ढाका का जिक्र कोई नहीं करता, वीरू ढाका ने 30000 शाक्यों को मोत के घाट उतार कर अजातशत्रु को कमजोर कर दिया था व नेपाल कि तलहटी पर भी कब्जा कर लिया था कांशी व कोशल तो पहले से ही इनके पास थे, ओर कच्छप जातिका बुध धर्म कि 315वीं कहानी है और कच्छप शब्द पाली भाषा का है न कि संस्कृत का, जिस समय महाराजा मानसिंह को बिहार, उड़ीसा व बंगाल का कमिश्नर बनाया गया था उस समय रोहतास गढ़ के किले में मानसिंह कि कचेरी (कोर्ट) लगती थी और उसी समय ढाका एक कस्बा है पूर्वी चंपारण में मोतिहारी व मधुबनी के बीच में वहां पर ढाका गोत्र के कश्यप परिवार कि सरदारी थी जिन्हें मानसिंह ने सतना मध्य प्रदेश व राजस्थान के नीम के थाना के पास सरकारी फरमान से हजारों बीघा जमीन दी थी लेकिन वो परिवार के कुछ सदस्य सतना मध्य प्रदेश में व कुछ हरियाणा की कलांनोर रियासत में आ कर बस गए और राजस्थान कभी नहीं गए इसमें जो सतना में है वो राजपूत है जो हरियाणा में हैं वो जाट में शामिल हो गए, जो ढाका कस्बा है पूर्व चंपारण में उसे वीरू ढाका ने बसाया था जहाँ पर श्री राम व शिव मंदिर बनवाए थे जो आज भी स्थित है
    उम्मीद है कि आप भी इसपर कुछ रिसर्च करेंगे और जो आपके सीकर में ढाका जाट रह रहे हैं उनसे, हरियाणा व उत्तर प्रदेश ओर पंजाब में भी रहते हैं उनसे इन ढाका का कोई सीधा संबंध तो नहीं है पर हो सकता है हजारों वर्ष पुराना हो
    मैं इसपर बहुत वर्षों से रिसर्च कर रहा हूं और सीकर वाले जाट ढाका खुद को चौहान से जोड़ते हैं लेकिन हम ओर सतना वाले, जमवाय माता कि धोक लगाने जयपुर के पास माता के मंदिर आते हैं
    धन्यवाद,
    राकेश ढाका
    7042139166, 9310787771
    गुडग़ांव

    • ये लेख मेरा नहीं, भरत आर्य यानी भरत हुड्डा ने लिखा है, भरत हुड्डा हरियाणा मूल के हैं और वर्तमान में सीकर रहते है वे आमेर के इतिहास में पीएचडी कर रहे हैं|

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