भाग .1 से आगे…
जिस प्रकार अन्य जातियों में अनेक शाखा और उपशाखाओं का विस्तार हुआ, ठीक उसी प्रकार राजपूतों ने भी अपनी शक्ति, संगठन और प्रभुत्व के बल पर अनेक वंशों की स्थापना कर ली जिनमें मुख्य रूप से अग्नि, चन्द्र और सूर्यवंशी राजपूत हुए। शास्त्रों के अनुसार जिनका वंश सोम से चला वे सब चन्द्रवंशी राजपूत कहलाये और जिन्होंने सूर्य को अपना अधिष्ठाता स्वीकारा वे सब आगे चलकर सूर्यवंशी राजपूत कहलाये। यह एक पौराणिक कल्पना है जिसका जन्म सूर्य की साक्षी यानी दिन में होता है उसे सूर्यवंशी तथा जिसका जन्म चन्द्रमा की साक्षी अर्थात् रात में होता है उसे चन्द्रवंशी माना जाता था। दशरथनन्दन श्रीराम का जन्म ठीक दोपहर को हुआ था इसलिए उन्हें सूर्यवंशी माना गया और श्रीकृष्ण का जन्म ठीक इसके विपरीत रात्री को हुआ था तो उन्हें चन्द्रवंशी लिखा गया। ऐसे कथनों को तत्कालीन चारण भाटों की प्रशस्ति का एक भाग भी कहा जा सकता है जिसके माध्यम से वे अपने अन्नदाता को परमात्मा के दिव्य प्रकाश रूपी वंश से जोड़कर उन्हें सर्वोच्च कुल में प्रतिष्ठित कराते थे जबकि सर्वमान्य तथ्य तो यह है कि प्रत्येक जीव का जन्म दिन अथवा रात्रि में होना निश्चित है, इसलिये सभी प्राणी न्यूनाधिक रूप से सूर्य अथवा चन्द्रमा की किरणों से प्रभावित होते ही है।1
इसी क्रम में जिस प्रकार राजपूत शब्द की व्युत्त्पति पर इतिहासकारों में मतभेद रहा है, उसी प्रकार उनकी विभिन्न शाखाओं की उत्त्पति पर भी मतभिन्नता रही है। जिस प्रकार समाज के अन्य वर्ग के लोगों ने अपने पावन कुलों को किसी न किसी ऋषि, मुनि अथवा देवता से सम्बद्ध किया हुआ है उसी प्रकार सभी शासक वर्गों ने भी अपनी वंशावलियों को येनकेन किसी न किसी अवतारी पुंज से जोड़ा है अथवा जुड़वाया हुआ है। इसी तरह कछवाहे शासक भी स्वयं को अयोध्या नरेश श्रीरामचन्द्र के पुत्र महाराजा कुश की सन्तान मानकर चलते हैं।
कछवाहा राजवंश कुल के राजपूत, जिनके मुख्य राज्य राजपूताने में आमेर व अलवर है तथा राजपूताने के बाहर कश्मीर है, अपने को अयोध्या नरेश श्रीरामचन्द्र के ज्येष्ठ पुत्र कुश के वंशज होना बताते हैं। कर्नल टॉड ने इन्हें कुश के वंशज होने से कुशवाहा नाम पड़ना और जो बाद में बिगड़कर कछवाहा राजवंश हो जाना बतलाया है।2 सर्वसाधारण में यह कछवाहा, कछावा या कछवा के नाम से प्रचलित है। हालांकि किसी भी प्राचीन लेख में इनको कुशवाहा नहीं लिखा गया है। उनमें इन्हें ‘कच्छपधात’ या ‘कच्छपारि’ ही लिखा गया है। अतः कनिंघम का यह लिखना सही ही है कि कछवाहों की कुश से उत्त्पति बतलाना भाटों द्वारा गढ़ी हुई बात है जिन्होंने कछवाहों व ‘कुश’ शब्द की समानता देखकर यह धारण गढ़ ली।3 कनिंघम के अनुसार ‘कच्छवा’ शब्द, संस्कृत शब्द कच्छप से तथा ‘ह’, संस्कृत शब्द ‘हन‘ से बना है। ‘हन’ व ‘घात’ शब्द के एक ही अर्थ होते हैं। अतः उनका वि.स. 1050 के ग्वालियर के सास-बहू के मन्दिर के शिलालेख में उल्लेखित कच्छपघात को कछवाहा राजवंश से सम्बन्धित करना ही ठीक है।4
आगे कर्नल टॉड लिखते हैं कि महाराजा कुश के कई पीढ़ी बाद उसी के किसी वंशधर ने शोणनद (सोन नदी) के किनारे रोहतास नामक दुर्ग का निर्माण कराया था।5 परन्तु टॉड यह भूल गये कि राजा हरिशचन्द्र का जन्म महाराजा दशरथ से भी काफी पहले हुआ था। रोहितासश्व, राजा हरिशचन्द्र का पुत्र था, जिसने अपने नाम पर रोहतासगढ़ नामक दुर्ग का निर्माण कराया था। मध्यकाल में इस दुर्ग पर पठान और मुगलों का अधिकार रहा। आज भी इस दुर्ग के अवशेष सम्बन्धित पहाड़ी पर बिखरे हुए मिलते हैं।
लेखक : भारत आर्य , शोधार्थी, इतिहास एवं संस्कृति विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर
सन्दर्भ : 1. दामोदर लाल गर्ग, जयपुर राज्य का इतिहास, पृ. 6,, 2. कर्नल टॉड, ऐनल्स एण्ड एण्टीक्वीटीज ऑफ राजस्थान, भाग – 3, पृ. 1328, 3. कनिंघम, आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया, जिल्द 2, पृ. 319, 4. वही, पृ. 319, 5. कर्नल टॉड, ऐनल्स एण्ड एण्टीक्वीटीज ऑफ राजस्थान, भाग – 3, पृ. 561