नरवर में इस वंश का शासन करीब दस पीढ़ी तक रहा। नरवर के कछवाहों को मध्यकाल में कन्नौज के प्रतिहार वंश के साथ युद्ध करना पड़ा जिसमें इन्हें पराजय का मुंह देखना पड़ा था। वि.स. 1034 वैशाख शुक्ला 5 (11 अप्रेल, 977) के शिलालेख से यह ज्ञात होता है कि उस संघर्षकाल में ग्वालियर दुर्ग पर लक्ष्मण का पुत्र वज्रदामा कछवाहा शासन करता था।1 बज्रदामन ने ही कन्नौज के प्रतिहार विजयपाल से गोपान्द्रि (ग्वालियर) का किला छीनकर महाराजाधिराज की पदवी धारण की थी। बज्रदामन 31 दिसम्बर, 1001 को आनन्दपाल के साथ महमूद गजनवी के विरूद्ध लड़ता हुआ मारा गया।2 इसके गुजर जाने के पश्चात् इसका पुत्र मंगलराज गद्दी का वारिस बना। इसके समय ई. सन् 1022 में महमूद ने ग्वालियर के किले का घेरा डाला लेकिन सफलता की आशा न देखकर वह 35 हाथी लेकर कालिंजर चला गया।3 मंगलराज के दो पुत्रों से दो शाखायें चली। बड़े पुत्र कीर्तिराज के वंशज तो कुतुबुद्दीन ऐबक के समय तक (वि.स. 1263) ग्वालियर के राजा बने रहे, परन्तु छोटे पुत्र सुमित्र को नीन्दड़ली (करौली राज्य का नीन्दड़ गाँव) जागीर में मिली। इससे स्पष्ट होता है कि ग्यारहवीं शताब्दी में कछवाहों का राज्य करौली कहलाने वाले क्षेत्र के मँडरायल दुर्ग पर भी रहा था।4
सुमित्र के वंश में क्रमशः मधुवहन, कहान, देवानिक और ईशासिंह हुए। ईशासिंह की जागीर में बरेली (करौली, बहादुरपुर) क्षेत्र था। यह जागीर प्रारम्भ में तो बहुत छोटी-सी थी, उसमें भी यह खादड़, खूदड़ और पठारी क्षेत्र था। उपज के नाम पर जंगल था। ईशासिंह का पुत्र सोढ़ासिंह और उसका पुत्र दुर्लभराज हुआ, जिसे आमेर की तवारीख में दुल्हेराय के नाम से पुकारा गया है। दुल्हेराय वीर होने के साथ-साथ महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति था। वह इस पठारी और जंगलात वाली जागीर में रहना पसंद नहीं करता था। इसलिये वह अपने पिता की अनुमति लेकर इस डाँग क्षेत्र से बाहर निकला। दुल्हेराय ने अपने श्वसुर की सहायता से पहले तो खोहगाँव पर अधिकार किया। तत्पश्चात् वह आगे बढ़ा और बाणगंगा के किनारे स्थित दौसा नामक स्थान पर पहुँचा, जहाँ बड़गूजरों की एक शाखा स्वतंत्र रूप से राज्य कर रही थी। प्रसिद्ध इतिहासकार जगदीश सिंह गहलोत का मानना है कि दूल्हेराय ने सन् 1137 में दौसा पर आक्रमण कर उसे बड़गूजरों से छीन लिया।5 परन्तु कर्नल टॉड ने इस घटना को काल्पनिक कहानी मानते हुए लिखा है कि जब दुल्हेराय दौसा दुर्ग के पास पहुँचा तो इसने दुर्गपाल से कहलाया कि वह अपनी इकलौती पुत्री का विवाह उससे कर दे। इस बात पर दुर्गपति ने कहा कि यह सम्भव नहीं हो सकता क्योंकि हम दोनों सूर्यवंशी हैं तथा अभी तक 100 पीढ़ीयाँ भी व्यतीत नहीं हुई हैं। प्रत्युत्तर में दुल्हेराय ने कहलवाया कि 100 पीढ़ी नहीं बीती तो क्या, 100 पुरूष तो गुजर गये होंगे। अन्त में दौसा दुर्गपति ने अपनी लड़की का विवाह दुल्हेराय से कर दिया तथा उत्तराधिकारी न होने के कारण दुल्हेराय को अपने राज्य का वारिस बना दिया था। दौसा दुर्ग प्राप्त होते ही दुल्हेराय की प्रतिष्ठा बहुत बढ़ गई।
डॉ. ओझा ने सोढ़देव के दौसा आने का समय वि.स. 1194 (1137ई.) के लगभग माना है।20 कविराजा श्यामलदास ने वि.स. 1033 कार्तिक कृष्णा 10 (22 सितम्बर, 976)6 एडवर्ट थोर्नटन7 एवं कर्नल टॉड8 ने ई. सन् 967 मानाहै। जबकि इम्पीरियल गजेटियर में ई. सन् 1128 बतलाया गया है।9 परन्तु इतिहासकार जगदीश सिंह गहलोत वि.स. 1034 के शिलालेख के अध्ययन के आधार पर वि.स. 1194 को ही सही मानते हैं।10 परन्तु जयपुर के राज्याभिलेखागार में संरक्षित आमेर के शासकों की वंशावली के अनुसार दुल्हेराय ने माघ सुदी 7, वि. 1063 से माघ सुदी 7, 1093 तक शासन किया था।11 जो कि सही जान पड़ता है। साथ ही दुल्हेराय के दौसा आने से ही आमेर के कछवाहा राजवंश का इतिहास आरम्भ होता है।
कुशनगरी से निकलने के बाद इनके वंशज देश के बहुत्तर भाग में फैल गये थे जहाँ उन्होनें अपनी बस्तियाँ बसाते हुए अपने राज्य कायम किये। उनमें मयूरभंग, धार, अमेठी, उड़ीसा, मधुपुर और कश्मीर के अलावा नरवर आदि स्थानों पर अपनी राजधानियाँ स्थापित कीं। इनमें नरवर के कछवाहों को छोड़ शेष लोगों ने इतिहास में इतनी ख्याति प्राप्त नहीं की जितनी की आमेर के कछवाहों ने प्राप्त की।12
कछवाहों की वंशावली कुश से लेकर राजा सुमित्र तक पुराणों में दी हुई है। मुहणोत नैणसी ने भी अपनी ख्यात में कछवाहों की तीन वंशावलियां दर्ज की हैं।13 उनमें पहली वंशावली उदेही के भाट राजपाण की लिखाई हुई हैं। तीनों वंशावलियों में पीढ़ियों के नाम एक समान नहीं हैं। राजा नल और उनके पुत्र ढोला के पश्चात् के नाम तीनों वंशावलियों में एक समान मिलते हैं। प्रामाणिक इतिहासों और शिलालेखों में राजा वज्रदामा से कछवाहों की सही वंशावली मिलती है। ग्वालियर से मिले राजा वज्रदामा के वि.सं. 1034 के शिलालेख में उसे लक्ष्मण का पुत्र और उसकी उपाधि महाराजाधिराज मानी हैं।
लेखक : भारत आर्य : शोधार्थी, इतिहास एवं संस्कृति विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर
सन्दर्भ :
1. जर्नल ऑफ एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल, जिल्द 31, अंक 6, पृ. 393, 2. टी.सी. हैण्डेले, कैम्ब्रीज हिस्ट्री ऑफ इण्डिया, जिल्द 3, पृ. 16, 3. वही, पृ. 22, 4. दामोदर लाल गर्ग, जयपुर राज्य का इतिहास, पृ. 16, 5. जगदीश सिंह गहलोत, कछवाहों का इतिहास, पृ. 78, 6. कवि राजा श्यामलदास, वीर विनोद, भाग – 2, पृ. 1260, 7. एडवर्ड थोर्नटन, गजेटियर ऑफ टेरीटोरिज अण्डर दी गवर्नमेण्ट ऑफ ईस्ट इण्डिया कम्पनी, जिल्द 2, पृ. 288, 8. कर्नल टॉड, ऐनल्स एण्ड एण्टीक्वीटीज ऑफ राजस्थान, भाग – 2, पृ. 346, 9. इम्पीरियल गजेटियर, जिल्द 13, पृ. 384, 10. जगदीश सिंह गहलोत, कछवाहों का इतिहास, पृ. 78, 11. जीनियोलॉजिकल टेबिल, स्टेट आर्काइव्ज, जयपुर, 12. दामोदर लाल गर्ग, जयपुर राज्य का इतिहास, पृ. 3, 13. मुहणोत नैणसी की ख्यात, भाग – 2, पृ. 1-8