नर्तकी और स्वामी विवेकानन्द : गर्मी का मौसम था| सूर्यास्त के बाद शेखावाटी के धोरों की ठंडक खेतड़ी के महलों तक पहुँच रही थी| उद्यानों में ठंडी हवा की बयार बह रही थी| खेतड़ी नरेश राजा अजीतसिंह जी अपने सहचरों सहित उद्यान स्थित बंगले में बैठे थे| राजाजी को लगा कि इस सुहाने मौसम में स्वामी विवेकानन्द जी का साथ हो तो वार्तालाप का मजा ही दुगुना हो जायेगा| सो उन्होंने स्वामी जी को वहां बुलाने की इच्छा व्यक्त की| इतने में एक सेवक दौड़ता हुआ स्वामीजी के पास गया और उन्हें बुला लाया| स्वामी जी व राजा जी के मध्य धर्म, अध्यात्म पर वार्तालाप चल ही रहा था कि राजा को सलाम करने के लिए नर्तकियों का एक दल उपस्थित हुआ| प्रातः व सायंकाल अक्सर राज्य के आश्रित व प्रजाजन राजा जी के अभिवादन हेतु उपस्थित होते थे, जिन्हें इसकी कोई अनुमति नहीं लेनी होती थी|
समागत नर्तिकियों के दल की सुगायिका ने जिसका यौवन सुलभ चांचल्य प्रौढ़ता की गंभीरता के रूप में बदल चुका था, गाना सुनाने की आज्ञा मांगी| राजा ने सुन्दर प्रौढ़ गायिका को अनुमति दे दी| गाना शुरू होने को ही था कि स्वामी विवेकानन्द जी जाने के लिए उठ खड़े हुए| नर्तकी ने हाथ जोड़कर निवेदन किया कि स्वामी जी महाराज आप अवश्य विराजिये, मैं आपको एक भजन सुनाना चाहती हूँ| वह ताड़ गई थी कि मुझे नीच नर्तकी समझ स्वामी जी जाने के लिए उठे हैं| अत: उसने बड़े कातर-भाव से उन्हें रुक कर भजन सुनने का आग्रह किया| उधर राजा अजीतसिंहजी ने भी स्वामी विवेकानन्द जी से आग्रह करते हुए कहा कि- स्वामी जी इसका गाना सुनकर आप बहुत प्रसन्न होंगे, कृपया आप सुनने की कृपा करें| स्वामी जी राजा के अनुरोध को टाल नहीं सके और बिना मन के अनमने से होकर बैठ गए|
नर्तकी ने भजन गाना आरम्भ किया| उसने स्वर-ताल के साथ तन्मयता से कवि सूरदास रचित एक पद गाया| उसकी तन्मय व मधुर आवाज को सुनने वाले चित्रवत हो गए| वह गाने लगी- हमारे प्रभु औगुन चित न धरो, समदरसी है नाम तिहारो, अब मोहि पार करो || हमारे प्रभु..|| इक लोहा पूजा में राखत, इक घर बधिक पधारो, पारस गुन औगुन नहिं चितवै कंचन करत खरो|| हमारे प्रभु ,,,,||……………
नर्तकी ने भजन समाप्त किया| स्वामी विवेकानन्द जी गदगद हो गए| उनके नेत्रों से अश्रुधारा बह चली| स्वामी जी के मुंह से तत्काल निकल पड़ा- ओह ! इस पतिता स्त्री ने एक भक्त का पद गाकर “सर्व खलिवदं ब्रह्म” के भाव को हृदयंगम करा दिया| स्वामी जी ने स्वयं लिखा- वह गाना सुनकर मैं समझा कि क्या यही मेरा सन्यास है ? मैं सन्यासी हूँ और यह पतिता नारी है, उंच-नीच की भावना, यह भेद-बुद्धि आज भी दूर नहीं हुई ? सब प्राणियों में, ब्रह्मानुभूति बड़ा कठिन कार्य है| चंडाल की बातें सुनकर भगवान् शंकराचार्य के मन से भेद-बुद्धि लुप्त हो गई थी| ऐसी तुच्छ घटनाओं से कितने महान फल उत्पन्न होते हैं, इसकी गणना कौन कर सकता है ?
स्वामी जी ने नर्तकी से कहा- माता. मैंने अपराध किया है| क्षमा करो| मैं तुम्हें घृणा की दृष्टि से देखकर यहाँ से उठा जाता था| परन्तु तुम्हारा ज्ञान-गर्भ गाना सुनकर मेरी आँखें खुल गई है|
सन्दर्भ : खेतड़ी नरेश और विवेकानन्द ; लेखक- पंडित झाबरमल्ल शर्मा
nice post Shri Ratan Singh Shekawat sir
प्रेणादायक घटना।
स्वामी विवेकानन्द की ये कथा प्रेरणा देती है
bahut sunadr jankari
very nice sir.
keep it up
Swami Vivekananda ki Sayed Kundalini jagrit ho gayi thi.