सोमनाथ महादेव मंदिर को लूटकर अलाउद्दीन खिलजी ने महादेव के ज्योतिर्लिंग को गिले चमड़े बाँधा और बैल गाड़ी में डालकर दिल्ली की ओर चला। रास्ते में जालोर के निकट सराणा या सकराणा गांव में डेरा डाला। उस वक्त जालोर पर सोनगरा चौहान वीरवर कान्हड़देव का शासन था। कान्हड़देव वीर व धर्मपरायण राजा था। उसे जब पता चला तो उसने खिलजी के पास अपने दूत भेजे। इन दूतों का नेतृत्व वीरवर कांधल ओलेचा ने किया। कान्हड़देव का सन्देश लेकर कांधल अपने कुछ राजपूतों के साथ खिलजी के शाही लश्कर में पहुंचा। जहाँ उसकी मुलाकात खिलजी के वजीर सिहपातला से हुई। सिहपातला खिलजी का भांजा भी था। वह कांधल व उसके साथी राजपूतों को देखकर बहुत खुश व प्रभावित हुआ। सिहपातला ने खिलजी को सूचना दी कि कान्हड़देव का सन्देश लेकर उसके राजपूत आये है, जो देखने लायक है। खिलजी ने उसे उन राजपूतों को हाजिर करने को कहा, इस पर सिहपातला ने अर्ज की कि- ‘‘ये लोग अनाड़ी होते है, राव कान्हड़देव के सिवा किसी दूसरे के आगे सिर नहीं झुकाते और अजब नहीं कि कोई अपराध भी कर बैठे, इसलिए जो हजरत उनका कसूर माफ फरमा देवें तो हाजिर करूँ।’’
ऐसा कह बादशाह अलाउद्दीन से वचन लेकर वजीर कांधल को खिलजी के हुजुर में ले गया और एक तरफ खड़ा कर दिया। कान्हड़देव का सन्देश सुनने के बाद खिलजी ने कहा- ‘‘कान्हड़देव तो उलटा हमको आँखें बताता है, हमारा यह नियम है कि मार्ग में कोई गढ़ आ जावे तो हम उसे लिए बिना आगे नहीं बढ़ते। फिर भी हम तो जा रहे थे पर अब कान्हड़देव ने ऐसा सन्देश भेजा है तो अब जालोर फतह किये बिना आगे ना जावेंगे।’’ इतने एक चील उड़ती हुई बादशाह जहाँ बैठा था, वहां ऊपर को आई। अलाउद्दीन ने उस पर तुक्का चलाया, जिसकी चोट से चील मरकर गिरने लगी, तब पास खड़े हुए तीरंदाजों को हुक्म हुआ कि चील गिरने ना पावे। उन्होंने तीर मारने शुरू कर दिए कि चील नीचे न गिर सकी।
यह देख कांधल ने सोचा कि यह सब मुझे दिखलाने के लिए किया जा रहा है। यह सोच कांधल भी क्रोध में भर उठा। उसी वक्त एक बड़ा भैंसा जिसके सिंग उसकी पूंछ तक पहुँचते थे, और ऊपर पानी से भरी पखाल लदी थी, कांधल के पास से गुजरा। कान्धल ने अपनी तलवार से उस भैंसे पर ऐसा वार किया कि भैंसे के सिंग काटकर, पखाल को चीरती और भैंसे के दो टुकड़े करती हुई उसकी तलवार भूमि पर जा लगी। इसी अवसर में वह चील भी नीचे गिरी और भैंसे के खून व पखाल के पानी में बह गई। कान्धल ने मन में कहा- ‘‘शकुन तो अच्छे है, बादशाही सेना भी हमारे सन्मुख इसी तरह बह जावेगी।’’ यह सब देख खिलजी के तीरंदाजों ने कमान की मूठ कान्धल की तरफ की पर, तब वजीर सिहपातला ने बीच में पड़कर उन्हें रुकवा दिया और कान्धल खिलजी के शिविर से बाहर आ गया।
इस तरह बादशाह अलाउद्दीन ने चील पर तीरों की वर्षा करवाकर शक्ति प्रदर्शन के रूप में जो नहला मारा, उस पर कान्धल ने भैंसे को चीर कर अपनी शक्ति प्रदर्शित करते हुए नहले पर दहला मारा।
संदर्भ : उक्त ऐतिहासिक घटना का जिक्र राजस्थान के प्रथम इतिहासकार मुहनोत नैणसी ने अपनी ख्यात में किया है |