देश में आज साम्प्रदायिक व जातीय उन्माद चरम सीमा पर है और बढ़ता ही जा रहा है| इतना उन्माद और एक दूसरे के प्रति नफरत तब भी नहीं थी, जब हिन्दू मुस्लिम शासक एक दूसरे के सामने तलवारें ताने खड़े थे, आपस में भयंकर युद्ध लड़ते थे, पर आज वोट बैंक की राजनीति ने साम्प्रदायिक उन्माद व नफरत पैदा कर दी| बेशक मध्यकाल में मुस्लिम आक्रमणकारियों ने भारत को लूटा, धार्मिक स्थलों को ध्वस्त किया, बावजूद साम्प्रदायिक आधार पर जो जहर नहीं फैला वो आज विद्यमान है| उस काल में दोनों पक्षों का अपना चरित्र था| जैसलमेर पर खिलजी के आक्रमण के समय उसके मुस्लिम सेनापति ने जैसलमेर का पतन करने का अपना कर्तव्य निभाया वहीं जैसलमेर के रतनसी के दो पुत्रों को अपने संरक्षण में रखकर भाटी राजवंश के वारिसों का हिन्दू रीति से लालन-पालन कर अपनी उदारता प्रदर्शित की| ऐसा ही चरित्र निभाया था वीर शिरोमणि दुर्गादास राठौड़ ने|
दुर्गादास राठौड़ ने अपने सबसे बड़े शत्रु औरंगजेब के पोते बुलन्द अख्तर और पोती सफितुन्निसा का न केवल लालन-पालन किया बल्कि उनके स्वास्थ्य, आचरण का ध्यान रखते हुए उन्हें इस्लाम धर्म की शिक्षा भी दी| आपको बता दें औरंगजेब के पुत्र शहजादे अकबर ने औरंगजेब की नीतियों के खिलाफ विद्रोह कर दिया था पर उसके मुस्लिम सहयोगियों के धोखे के कारण उसका विद्रोह सफल नहीं हुआ| आखिर शहजादे अकबर को औरंगजेब के डर से ईरान भागना पड़ा था| औरंगजेब के उक्त पोते-पोती इसी शहजादे अकबर की संतान थे| अपने बुरे समय में अकबर ने अपने शिशुओं को वीर दुर्गादास को सौंप दिए थे| दुर्गादास ने बाड़मेर के निकट सुदूर मरुभूमि के मध्य, एक अज्ञात, दुर्गम पुरानी गढ़ी में जोशी गिरधर रघुनाथ संचोरा के संरक्षण में रखकर लालन-पालन कराया था|
यही नहीं जब इन्हें वापस औरंगजेब को सौंपा गया तब औरंगजेब यह जानकार हैरान रह गया कि उसके कट्टर शत्रु दुर्गादास ने उसके वारिसों को मुस्लिम तालीम भी दी| जब शाहजादी सफितुन्निसा औरंगजेब के दरबार में पहुंची तो औरंगजेब ने उसके लिए इस्लामी शिक्षा की व्यवस्था करने का आदेश दिया, तब सफितुन्निसा ने बताया कि बाबा (दुर्गादास) उसकी भलाई के इतने उत्सुक थे कि उन्होंने अजमेर की एक मुस्लिम महिला की सेवाएँ प्राप्त की, जिसके प्रशिक्षण से वह कुरान पढ़ और कंठस्त कर चुकी है| और सफितुन्निसा ने औरंगजेब को कुरान सुना दी|
इस तथ्य से औरंगजेब बहुत प्रभावित हुआ और दुर्गादास राठौड़ की भावना की सच्चाई के प्रति आश्वस्त हुआ, उसी दिन के बाद औरंगजेब के मन में अपने घोर शत्रु दुर्गादास के प्रति नफरत की जगह सम्मान पैदा हो गया और उसने दुर्गादास राठौड़ को बिना मांगे ही मनसब आदि प्रदान किये| शाहजादी सफितुन्निसा के लौटने व उसके साथ किये सदव्यवहार की जानकारी के बाद दिल्ली – मारवाड़ झगड़ा निपटाने की प्रक्रिया प्रारंभ हुई| इस तरह ये उदाहरण साफ़ करते है कि उस काल में जितने युद्ध थे वे सत्ता के लिए थे, साप्रदायिक आधार पर नहीं थे, दो सम्प्रदायों के प्रतिद्वंदियों के मध्य भी साम्प्रदायिक नफरत नहीं थी, दोनों एक दूसरे की धार्मिक भावनाओं का आदर करते थे| खिजली का सेनापति महबूब खान भी चाहता तो रतनसी के पुत्रों को मुस्लिम बना सकता और दुर्गादास राठौड़ भी चाहते तो अपने सबसे बड़े शत्रु के वारिसों को हिन्दू धर्म की तालीम देकर उन्हें उनके धर्म से च्युत कर सकते थे| पर उन्होंने ऐसा नहीं किया क्योंकि – उस समय साम्प्रदायिक आधार पर नफरत नहीं थी, लोगों का अपना उच्च चरित्र था, जो दुश्मन को भी सम्मान देते थे, उसकी भावनाओं का आदर भी करते थे|
nice story
To fir mandir q tode jaate the hukm ???