आज किताबें पलटते हुए मनीष सिंघवी की लिखी पुस्तक “धरती धोरां री”हाथ लगी पन्ने पलटने पर इस पुस्तक मे एक से बढकर एक राजस्थानी कविताएं पढने को मिली | इन्ही कविताओं में एक कविता ‘इन्कलाब री आंधी ‘ जो राजस्थान के मूर्धन्य कवि रेवतदान द्वारा लिखी गयी पढ़ी |इस कविता में कवि ने जन आन्दोलनों के प्रभाव का बहुत बढ़िया ढंग से चित्रण किया है | कविता में जन आन्दोलन की तुलना विकराल आंधी से करते हुए कवि कहता है कि जन आन्दोलन रूपी आंधी के आगे कोई भी नहीं टिक पाता ,जन आन्दोलन यानि इन्कलाब की आंधी बड़े बड़े गढ़ों ,महलों ,बंगलों को तिनके की तरह ढहा देती है |
यहाँ प्रस्तुत है कवि रेवतदान लिखित यह कविता ‘इन्कलाब री आंधी ‘
अंधार घोर आंधी प्रचन्ड
आ धुंआधोर धंव-धंव करती
आवै है उर में आग लियां, गढ कोटां बंगळां नै ढहती !
बैताळ बतूळौ नाचै है , जिण रै आगै संदेस लियां
राती नै काळी पीळी आ , कुण जाणै कितरा भेख कियां
वे संख वजै सरणाटां रा , कोई गीत मरण रा गावै है
डंकै री चोट करै भींता , बायरियौ ढोल बजावै है
विकराळ भवानी रमै झुम ,धरती सूं अंबर तक चढती
अन्धार घोर आंधी प्रचंड ,आ धुंआधोर धंव-धंव करती
आवै है उर में आग लियां, गढ कोटां बंगळां नै ढहती !
नींवां रै नीचै दबियोडी,जुग-जुग री माटी दै झपटौ
ले उडी किलां नै जडामूळ, पसवाडौ फ़ेर लियो पलटौ
तिणकै ज्यूं उडगी तरवारां,गौचे रौ रुप कियौ भालां
रुंखा रै पत्तां ज्यूं उड्गी, वै लाज बचावण री ढालां
वा पडी उखरडी मे बोतल,मद पीवण रा प्याला उडग्या
मैफ़िल रा उडग्या ठाठ -बाट,वै महलां रा रखवाळा उडग्या
वै देख जुगां रा सिंघासण, रडबडता पडिया ठोकर मे
वै ऊंधा लटकै अधरबम्ब, नहिं झेलै अम्बर नै धरती
अन्धार घोर आंधी प्रचंड ,आ धुंआधोर धंव-धंव करती
आवै है उर में आग लियां, गढ कोटां बंगळां नै ढहती !
आंधी आ अजब अनूठी है, डूंगर उडग्या सिल उडी नही
सिमरथ वै ढहग्या रंग-महल,हळकी झूंपडियां उडी नही
उड गयौ नवलखौ हार् देख, मिणियां री माळा पडी अठै
उड गई चुडियां सोनौ री , लाखां रौ चुडलौ उडै कठै
उड गया रेसमी गदरा वै , राली रै रंज नही लागी
आ फ़िरै कामेतण लडाझूम ,लखपतणी मरगी लडथडती
आवै है उर में आग लियां, गढ कोटां बंगळां नै ढहती !
अंधकार मत जांण बावळा, इंकलाब री छाया है
इण भाग बदळिया लाखां रा, केई राजा रंक बणाया है
रे आ वा काळी रात जका, पूनम रौ चांद हंसावै है
रे आ वा वाल्ही मौत जका,मुगती रौ पंथ बतावै है
रे आ वा भोळी हंसी जका,के मरती वेळा आवै है
इण धुंआधार रै आंचळ मे इक जोत जगै है जगमगती
अंधार घोर आंधी प्रचंड ,आ धुंआधोर धंव-धंव करती
आवै है उर में आग लियां, गढ कोटां बंगळां नै ढहती !
सरणाटां = सन्नाटा | भींता = दिवारें |बायरियौ = हवा |रमै = खेले |जडामूळ = जड समेत |रुंखा = पेड |बंगळां = बंगला |
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राजस्थानी में अधिक ज्ञान नहीं पर भावार्थ समझ सका । सुन्दर अभिव्यक्ति ।
बहुत मुश्किल है जी
राजस्थानी कवि रेवतदान की एक शानदार रचना पढ़वाने के लिए आभार!
बहुत सुन्दर रचना है . धन्यवाद.
हिन्दीकुंज
रेवतदानजी चारण की ,
मन में जोश और भुजाओं में गति भर देने वाली रचना के लिए आभार आपका ।
छाती पर पैणा पड़्या नाग !
रे , धोरां वाळा देश जाग ! की स्मृति हो आई ।
…लेकिन ग़ैरराजस्थानी भाषा – भाषी पाठकों तक पहुंचाने के लिए कुछ और मेहनत करते हुए शब्दार्थ विस्तार से देते या भावार्थ दे देते तो और श्रेयस्कर होता ।
मैं शस्वरं पर राजस्थानी रचनाएं देते हुए ऐसा ही करता हूं , परिणाम स्वरूप राजस्थानी लोगों की तुलना में ग़ैरराजस्थानी मित्रों की अधिक उत्साहजनक प्रतिक्रिया आती है ।
( राजस्थानी लोगों में तो ख़ैर वैसे भी गुणों की सराहना की आदत नहीं पाई जाती )
– राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
इस सुन्दर पोस्ट की चर्चा "चर्चा मंच" पर भी है!
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http://charchamanch.blogspot.com/2010/06/193.html
बहुत कठिन है जी अनुवाद भी देते तो अच्छा लगता। धन्यवाद्
सुन्दर रचना है |
jordaar kavita he.
इस कविता को यहाँ उपलब्ध कराने के लिए आभार!