आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने प्रसिद्ध देशभक्त, स्वतंत्रता संग्राम के पुरोधा राव गोपालसिंह खरवा से अपनी पहली भेंट के बारे में संजीवन पत्र के एक अंक में लिखा, जिसे राव साहब के दीवान रहे ठाकुर सुरजनसिंह जी शेखावत ने अपनी पुस्तक “राव गोपालसिंह खरवा” में उद्धृत किया | जो इस प्रकार है – “खरवा के राव गोपालसिंह राष्ट्रवर दिल्ली पधारे थे। उनके दिल्ली पहुँचने पर जब मैं मिलने गया और कमरे में प्रवेश किया तो देखा एक भारी भरकम रूईदार काले खद्दर का लवादा ओढ़े एक धीर गंभीर पुरुष बैठे अखबार पढ़ रहे हैं। मेरे प्रवेश करते ही आप खड़े हो गए-हाथ मिलाया।
बैठने पर बातों का तार लग गया। ऐसा लगा मानों किसी पूर्व परिचित मित्र से मिलना हुआ हो। वह उनकी सादगी और सरल चित्त की करामात थी। उनसे मिलने वाला कोई भी व्यक्ति उनसे कुछ देर बात करते ही जान जाता है कि उनमें कितना देशोन्माद भरा हुआ है। “संजीवन” के पाठक जानते हैं कि उनके देशोन्माद के कारण सरकार आप पर रूठी बैठी है। पर आपकी मस्ती में जरा भी अन्तर नहीं है। अवस्था 45 के लगभग, शरीर सुदृढ़ एवं दर्शनीय, आँखें गूढ, आरक्त, मूंछे घनी, भौंहे टेड़ी, चेहरे की तराछ में राजपूती बांकपन है। जल्दी-जल्दी बोलते हैं। हिन्दी, अंग्रेजी और मारवाड़ी सरलता से बोल जाते हैं।
शरीर चूर हो चुका है, पर अब शरीर की चिन्ता करने की मुझे फुरसत नहीं है। “क्या आपने कानपुर वाली मेरी स्पीच पढ़ी है?” मैने कहा स्पीच तो नहीं पढ़ी, किन्तु मौलाना शौकत अली ने आपकी तलवार का उपहास किया है, वह पढ़ा है। आपने उत्सुकता से पछा-कैसा उपहास? मौलाना तो मेरे प्यारे भाई हैं। मैने कहा-उन्होंने बम्बई में स्पीच देते हुए कहा था-“राव साहब, राणा प्रताप की जंग लगी तलवार को फिजूल चमकाते हैं; पर उनसे कुछ होगा नहीं।” आप बोले-“कुछ होगा या नहीं-यह बात कौन जानता है। पर मेरे हाथ में जब तक यह तलवार है उसे चमकाना मेरे लिए प्रतिष्ठा का कारण है और यह तो सोच ही नहीं सकता कि उसमें कभी जंग लग सकता है।”
यू.पी. और राजपूताना के लोगों की चर्चा छिड़ने पर आपने कहा राजपूताना की अपेक्षा यू.पी. के लोग अधिक योग्य और चुस्त चालाक होते हैं। पर उनकी योग्यता बदमाशी के रूप में काम आती है। आपने यू.पी. के तिलहर स्थान पर अपनी नजरबन्दी के समय का जिकर करते हुए बताया कि वहाँ के लोग जूता, लोटा और उससे भी छोटी वस्तुएँ चुराकर ले जाते थे। राजपूताना में दो बातों का आपने अभाव बतलाया। एक योग्यता का-दूसरा आत्म-त्याग का। आत्म-त्याग का एक छलकता सा उदाहरण आपने ईडर राज्य के एक ग्रामीण राजपूत का दिया-“बादशाही जमाना था। शाही फ़ौज गाँव के निकट पड़ाव डाले पड़ी थी। कुछ सिपाही खाद्य वस्तुओं की तलाश में गाँव में घुस आए। एक राजपूत के घर से दही की भरी हाँडी, औरतों के इन्कार करने पर भी, उठाकर ले गए। मर्द घर पर न था। जब राजपूत घर आया तो सब समाचार सुना। तत्काल खूटी से तलवार उतारकर फौज के पड़ाव की तरफ चल पड़ा। लोगों ने समझाया कि क्यों जरा सी बात पर झगड़ा मोल लेते हो । उसने कहा बात जरासी नहीं; आज ये दही ले गए-कल मेरी स्त्री को भी ले जायेंगे। दही की जरूरत थी तो माँग कर ले जाते । जोर जबरदस्ती से तिनका भी नहीं दूंगा। थोड़ी ही देर में राजपूत दही की हांडी लेकर लौटा, उसकी तलवार से खून टपक रहा था। हाँडी घर में रखकर उसने पड़ौसी ब्राह्मण को बुलाया; आपने 10 वर्ष के बालक का हाथ उसे पकड़ाकर कहा-इसे तुम पालना, फिर उसने अपना सर्वस्व दान कर दिया और अपनी पत्नी का सिर भी काट दिया। इतने में ही उनका पीछा करते सिपाही आ गए और क्षण भर बाद राजपूत का शरीर भूमि पर लौटने लगा। इस घटना को सुनाकर राव साहब ने एक लम्बी सांस ली और कहा-“वह मारवाड़, अब ऐसा सोया है कि कहने की बात नहीं।”
महात्मा गांधी के अहिंसक असहयोग आन्दोलन का प्रसंग छिड़ने पर आपने कहा- मैं तो हमेशा यही कहता रहा हूँ कि यूरोप का चतुर बनिया, आँसू से नहीं पिघलेगा। उसे तो भय ही डरा सकता है। भय-भूत बनो भय-भीत नहीं। खद्दर मैं पहिनता हूँ। इस देश के वासियों के लिए यह बड़ी उपयोगी है। छुआछूत के बारे में आपने कहा- छूत के भूत को भोजन में आनन्द क्यों आता होगा। राजपूताना के लोगों ने इस मामले में हमेशा उदारता बरती है। आठ पूरबिया नौ चूल्हा वाला प्रयोग यहाँ कभी नहीं हुआ। भीलों, मीणों और मेहरातों की पत्नियों से लूकी सूकी मक्की की रोटियाँ खाकर हमारे पूर्वजों ने खुशी से दिन बिताए हैं। वहाँ भला छुआछूत की भावना कहाँ से आती?
आचार्य चतुरसेन शास्त्री (संजीवन पत्र के एक अंक से उद्धृत)