हठीलो राजस्थान-19

Gyan Darpan
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बिण ढाला बांको लड़े,
सुणी ज घर-घर वाह |
सिर भेज्यौ धण साथ में,
निरखण हाथां नांह ||९७||

युद्ध में वीर बिना ढाल के ही लड़ रहा है | जिसकी घर-घर में प्रशंसा हो रही है | वीर की पत्नी ने युद्ध में अपने पति के हाथ (पराक्रम) देखने के लिए अपना सिर साथ भेज दिया है |(उदहारण-हाड़ी रानी )|

मूंजी इण धर मोकला,
दानी अण घण तोल |
अरियां धर देवै नहीं,
सिर देवै बिन मोल ||९८||

इस मरुधरा में ऐसे कंजूस बहुत है जो दुश्मन को अपनी धरती किसी कीमत पर नहीं देते व ऐसे दानी भी अनगिनत है जो बिना किसी प्रतिकार के अपना मस्तक युद्ध-क्षेत्र में दान दे देते है |

खलहल नाला खल किया,
बिन पावस किम आज ?
सिर कटियो धर कारणे,
धर रोवै सिर काज ||९९||

बिना ही पावस ऋतू के आज ये नाले खलखल करते कैसे बह उठे है ? यह इसलिए कि वीरों ने धरती के लिए सपने सिर कटा दिए है परिणामत: धरती अपने उन्ही सपूतों के प्रति कृतज्ञता वश रुधिर-धारा के रूप में आंसू बहा रही है ||

कर केसरिया धर रंगी,
आली ! मो भरतार |
सधवा धरणी सह करी,
विधवा परणी नार ||१००||

हे सखी ! मेरे वीर स्वामी ने केसरिया कर धरती को लहू से रंग दिया है | यों उन्होंने इस सारी पृथ्वी को तो सधवा (सुहागन) कर दिया है; परन्तु मुझे विधवा कर दिया है | अर्थात वीर युद्ध करता हुआ वीर गति को प्राप्त हो गया है |
हेली ! देखो आज किम,
अम्बर दिसै आग |
सुरगां पीव सिधावता,
जलद झकोली खाग ||१०१||

हे सखी ! देखो आज आकाश में यह लाली कैसी दिखाई दे रही है ? लगता है मेरे प्रियतम ने स्वर्ग सिधारते हुए मेघ जल में अपना खड्ग धोया है |

आ लाली लख अरस री,
आली, नहीं अबीर |
लपटां जौहर जालगी,
अवनी आभो चीर ||१०२||

आसमान में लाली व उसमे चमकते हुए कणों को देखकर सखी कल्पना करती है कि आकाश में किसी ने अबीर युक्त गुलाल बिखेर दिया है | सखी की इस कल्पना से असहमत होते हुए वीरांगना कहती है -हे सखी ! तू आकाश की लाली को व उसमे चमकने वाले कणों को ठीक प्रकार से देख यह गुलाल अबीर नहीं है | ये तो धरती से उठती जौहर की आकाश को चीरती हुई उठने वाली लपटों का प्रभाव है जिसके कारण आकाश लाल हो गया है व बीच-बीच में चमकने वाली आग की चिंगारियां है न कि अबीर |

स्व.आयुवानसिंह शेखावत

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