राजा मानसिंह और महाराणा प्रताप

Gyan Darpan
0
Raja Mansingh Amer and Maharana Pratap
मानसिंह वैसा नहीं था जैसा आज जन सामान्य में प्रचलित है। यह तो उस समय की राजनीतिक मजबूरी थी जो उसे मुगल साम्राज्य की सेवा में रहना पड़ा था। अन्यथा मानसिंह स्वयं स्वतंत्रता प्रिय व धर्मवान शासक था। मैं यहाँ पुनः हल्दी घाटी के युद्ध की बात कर रहा हूँ जिसमें कहने को मानसिंह और महाराणा प्रताप के बीच संघर्ष हुआ था लेकिन पार्श्व में ऐसे कई प्रसंग है जिनकी गहराई में यदि जाएं तो स्पष्ट हो जाता है कि मानसिंह ने प्रताप को हर तरह से मदद की थी, चूंकि वह चाहता था कि कम से कम एक हिन्दू शासक ऐसा हो जो मुगल साम्राज्य से स्वतन्त्र हो। यही कारण था कि मुगल सेना के खमनोर पहुँचने के उपरांत भी तुरंत युद्ध प्रारम्भ नहीं किया। प्रताप को तैयारी का समय दिया और बाद में भी युद्ध के मैदान से उन्हें सुरक्षित निकल जाने दिया।

मानसिंह की इस मानसिकता का आभास अकबर को भी हो गया। उसने मानसिंह पर नाराजगी व्यक्त करते हुए अपने प्रिय नौरत्न की डचोढी बंद कर दी थी। इन पंक्तियों के लेखक ने 1970 में प्रकाशित एक लेख एवं अपनी पुस्तक ‘‘प्रातः स्मरणीयः महाराणा प्रताप’’ में स्पष्ट लिखा है कि महाराणा प्रताप एवं मानसिंह के बीच सद्भावपूर्ण सम्बन्ध थे जिसके कारण ही प्रताप एवं मेवाड़ को हल्दीघाटी युद्ध से पूर्व व बाद में कोई विशेष नुकसान नहीं हुआ।

यह प्रसंग विशेषकर उठाया जा रहा है चूंकि मानसिंह के सम्बन्ध में जन सामान्य में अभी भी कई भ्रांतियां विद्यमान है, जबकि वास्तविकता यह है कि अगर मानसिंह अकबर के दरबार में और उसका प्रिय न होता तो शायद देश में मुस्लिम कट्टरता का तांडव नृत्य देखने को मिलता, जैसा कि स्वयं अकबर ने अपनी उपस्थिति में 1567 ई. में चित्तौड़ पर किये आक्रमण के समय किया था। बाद में उसे सही दिशा देने एवं निरंकुश नहीं होने देने में मानसिंह का विशेष योगदान रहा है जिसे हमें नहीं भूलना चाहिए।

एक और तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट करना समीचीन होगा कि सामरिक इतिहास के इस सबसे तेजस्वी पुरुष के काल में आम्बेर राज्य की सीमा का प्रसार तो नहीं हुआ लेकिन वैभव और शक्ति में अपार वृद्धि हुई थी। मानसिंह स्वयं एक कवि था। अतः एक प्रबल योद्धा होने के बावजूद कभी भी वह क्रूर नहीं हुए। हो भी कैसे सकते थे, कवि सदैव संवदेनशील होता है। उनके अनेक स्फुट छंद मिलते हैं। उनके राज्यकाल में आम्बेर ने अनेक कवि, पंडित, गुणीजन व कालावन्त दिये और अपार साहित्य-सृजन हुआ।

संक्षेप में हम कह सकते हैं कि 77 युद्धों का यह नायक राजस्थान की वह विभूति है जिस पर हर राजस्थानी को गर्व का अनुभव होता है चूंकि इतिहास में ऐसा सफल समर-योद्धा युगों-युगों में होता है।

लेखक : तेजसिंह तरुण अपनी पुस्तक ‘‘राजस्थान के सुरमा’’ में

एक टिप्पणी भेजें

0टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें (0)