सचियाय माता

Gyan Darpan
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sachiyay Mata temple Osian Rajasthan


सच्चियाय (सच्चिवाय) माता का भव्य मंदिर जोधपुर से लगभग 60 कि.मी. की दूरी पर उत्तर-पश्चिम दिशा की ओर ओसियॉ में स्थित है। इसीलिये इसे ओसियॉ माता भी कहा जाता है। ओसियां प्राचीनकाल से धार्मिक व कला का महत्त्वपूर्ण केंद्र रहा है। यहाँ पर 8 वीं व 12 वीं सदी के जैन व ब्राह्मणों के कलात्मक मंदिर व उत्कृष्ट शिल्प में बनी मूर्तियाँ विद्यमान है। खजुराहो और भुवनेश्वर के मंदिरों की भाँती महत्त्वपूर्ण ओसियां के मंदिरों में परमार क्षत्रिय राजवंश की कुलदेवी सचियाय माता जिसे ओसवाल समाज भी कुलदेवी के रूप में पूजता है, वास्तु व मूर्तिकला के उत्कृष्ट शिल्प के उदाहरण है। स्थानीय मान्यताओं के अनुसार ओसियां नगर का प्राचीन काल में मेलपुरपट्टन नाम था। जो उपकेश या उकेश नाम से भी जाना जाता था। जनश्रुतियों के अनुसार यह नगर कभी ढुण्ढिमल नाम के एक साधू द्वारा शाप देने के चलते उजड़ गया था। जिसे उप्पलराज या उप्पलदेव परमार राजकुमार द्वारा पुनः बसाया गया। राजस्थान में ई. 400 के करीब राजस्थान के नागवंशियों के राज्यों पर परमारों ने अधिकार कर पश्चिमी राजस्थान में अपने राज्य स्थापित कर लिए थे। परमारों के मारवाड़ (पश्चिमी राजस्थान) में नौ दुर्ग क्रमशः मण्डोर, साम्भर, पूंगल, लोद्रवा, धाट, पारकर, किराडू, आबू व जालौर थे।

परमारों के इन्हीं राज्यों में से किराडू का एक राजकुमार उप्पलराज जिसे जैन ग्रन्थों में भीनमाल का राजकुमार बताया गया है, ने ओसियां नगर में ओसला लिया था अर्थात् शरण ली थी। इसी कारण इस स्थान का नाम ओसियां पड़ा। हालाँकि इतिहासकारों में ओसियां बसाने वाले के नाम को लेकर मतभेद है, पर इतना तय है कि राजकुमार उप्पलराज ओसियां आया और उसने यहाँ माता का मंदिर बनवाया था।

‘‘प्राप्त शिलालेखों और ताम्रपत्रों से ज्ञात होता है कि आबू के परमारों के मूल पुरुष का नाम धूम्रराज था। वि.सं. 1218 के किराडू से प्राप्त शिलालेख में आरम्भ सिन्धुराज से है। आबू का सिन्धुराज मालवा के सिन्धुराज से अलग था। सिन्धुराज का पुत्र उत्पलराज किराडू़ छोड़कर ओसियां जा बसा। वहां उसने ‘‘सच्चियाय माता’’ का मंदिर बनवाया।’’1 इस संबंध में मुंहता नैणसी ने लिखा-‘‘धरणीबराह का उत्पलराय किराड़ू छोड़कर ओसियां में जा बसा, सचियाय देवी प्रसन्न हुई मालवा दिया, ओसियां में देवल कराया।’’2 मुंहता नैणसी द्वारा धरणीबराह को उत्पलराय का भाई लिखने पर मुंहनोत नैणसी की ख्यात के संपादक ओझा जी उसी पृष्ठ के फूट नोट पर लिखते है- ‘‘बसंतगढ़ से मिले हुआ सं. 1099 वि. के परमारों के लेख में पाया जाता है कि उत्पलराज धरणीबराह का भाई नहीं किन्तु परदादा था जिसका समय विक्रम की दसवीं शताब्दी के आरम्भ में होना चाहिए।’’

इतिहास पुस्तकों व प्रचलित मान्यताओं के आधार पर भीनमाल के शासक ने अपने छोटे पुत्र को भीनमाल का राज्य देने के पश्चात बड़े पुत्र उपलदे को देश निकाला दे दिया। जैन ग्रन्थों के अनुसार उपलदे द्वारा भीनमाल छोड़ते समय उसके साथ एक उहड़ नामक वैश्य भी साथ हो लिया था, जिसके पास उस वक्त 99 लाख रूपये थे। यही उहड़ वैश्य आगे चलकर जैन धर्म में दीक्षित हुआ। उहड़ की आर्थिक मदद से उपलदे ने घोड़े आदि खरीदे। भीनमाल छोड़ने के बाद उपलदे ओसियां आया। उस वक्त ओसियां में देवी का एक चबूतरा बना था और उस पर देवी की चरण पादुकाएं रखी थी। रात्री के समय राजकुमार उपलदे देवी को प्रणाम कर चबूतरे पर सो गया। देवी ने प्रकट होकर राजकुमार का परिचय व वहां आने का अभिप्राय पूछा। तब राजकुमार उपलदे ने देवी से शरण मांगते हुए एक नगर बसाने की इच्छा व्यक्त की। देवी ने आशीर्वाद देते हुए निर्देश दिया कि सूर्य उदय होते ही वह जितनी दूर घोड़े को घुमा लेगा वह भूमि उसकी होगी। राजकुमार ने सुबह होते ही 48 कोस के क्षेत्र में घोड़ा घुमाया और तत्पश्चात नगर निर्माण हेतु मकान बनाने लगा लेकिन वह जो भी निर्माण करता वह थोड़ी देर में ध्वस्त हो जाता। इसी समस्या के समाधान हेतु जब उपलदे देवी के समक्ष उपस्थित हुआ तब देवी ने उसे पहले उसका मंदिर बनाने की आज्ञा दी, साथ ही मंदिर व नगर निर्माण हेतु धन व निर्माण सामग्री की उपलब्धता के बारे में जानकारी देते हुए उसे वह स्थान बताया जहाँ धन गड़ा था।
मंदिर निर्माण के पूर्ण होने पर राजकुमार ने फिर देवी की स्तुत्ति की और देवी के प्रकट होने पर मूर्ति सोने, चांदी या पत्थर की बनवाने हेतु निर्देश पूछे। तब देवी ने स्वतः प्रकट होने की बात बताते हुए निर्देश दिया कि उनके प्रकट होते समय किसी तरह का हल्ला मत करना। तीसरे दिन देवी स्वयं पहाड़ से प्रकट होने लगी, तब भयंकर गर्जना हुई, भूकंप आने लगा, घोड़े व अन्य पशु इधर-उधर भागने लगे तब राजकुमार उन्हें रोकने के लिए चिल्लाया, तब तक देवी आधी ही निकली थी सो उसका निकलना वहीं रुक गया। राजकुमार द्वारा निर्देश का उलंघन करने के चलते देवी कुपित भी हुई लेकिन फिर उसे माफ करते हुए निर्देश दिया कि वह अपने रहने के लिए मंदिर के सामने ही अपना मकान बनवा ले। इस तरह देवी माता की कृपा से राजकुमार उपलदे नगर निर्माण में सफल हुए पर समस्या थी वहां रहने के लिए लोग नहीं थे, सो बस्ती कैसे बसे। बस्ती बसाने हेतु राजकुमार भीनमाल गया और वहां से 18000 गाड़ियों में ओसियां में बसने के इच्छुक व्यक्तियों व उनके परिजनों को सामान के साथ भरकर लाया। इस तरह उजड़े ओसियां नगर का पुनर्निर्माण हुआ।

देवी से जुड़ें एक और प्रकरण पर राजस्थान के प्रथम इतिहासकार मुंहनोत नैणसी बाघ नामक परमार की गोयंद परिहार द्वारा हत्या के बाद बाघ के बैरिसिंह नामक पुत्र द्वारा परिहारों से बदला लेने की घटना का जिक्र करते हुए अपनी ख्यात में लिखते है- ‘‘बैरिसिंह ने पयान करते समय माता की मानता मानी थी कि जो पड़िहारों पर फतह पाऊं तो कमल पूजा करूँगा, माता सचियाय ने स्वप्न में आकर आज्ञा दी कि कल काले वस्त्र पहने काली टोपी सिर पर धरे, एक गाड़ी में, जिसके काली खोली (गिलाफ) और काले ही बैल जुते होंगे, बैठा हुआ एक आदमी मिलेगा और कहेगा कि मार्ग से मत जा, परन्तु तू उसे मार कर चला जाना। प्रभात होते ही बैरसी मुन्धियाड़ (पड़िहारों का एक ठिकाना) पर चढ़ा। सामने उसी भेष का पुरुष मिला। उसको मार कर फिर मुन्धियाड़ जा मारा और बहुत से पड़िहारों का प्राण लेकर बाप का बैर लिया। कार्य सिद्ध होने उपरांत ओसियां आया और माता के मंदिर का द्वार बंद कर एकांत में कमल पूजा करने को खड़ग उठाया, तब देवी ने हाथ कर समझाया कि मैं तेरी सेवा से प्रसन्न हुई और तेरा मस्तक तुझे दिया, इसके बदले सुवर्ण का सिर बनवाकर चढ़ा देना। फिर अपने हाथ से शंख बैरसिंह को देकर फरमाया कि इस शंख को बजाकर सांखला प्रसिद्ध हो।’’3

सच्चियाय माता जिसे सच्चिवाय व सच्चिका माता के नाम से जाना जाता है के मंदिर से प्राप्त संवत 1234, 1236 व 1245 के शिलालेख मंदिर की प्राचीनता, पौराणिकता व मंदिर में पूजा अर्चना की विधियों पर जानकारी देते है। चण्डिका, शीतला और क्षेमकरी रूपों में माता व क्षेत्रपाल की प्रतिमाओं की उपस्थिति वाले इस मंदिर में पहुँचने हेतु कलात्मक तोरणद्वारों की श्रंखला वाला एक सीढ़ीदार रास्ता बना है। रास्ते में बने ये तोरण द्वार विभिन्न समय में विभिन्न देवी भक्तों द्वारा निर्मित कराये गये है। क्षत्रियों के साथ ही जैन समुदाय भी देवी को अपनी कुलदेवी के रूप में मानता और उपासना करता है अतः यहाँ सात्विक रूप से ही चढ़ावा चढ़ता है। चढ़ावे में खोपरा व खाजा जिसे करड़ मरड़ कहा जाता है चढ़ाया जाता है।

सन्दर्भ ग्रन्थ :
1- राजपूत शाखाओं का इतिहास पृ. 271, देवीसिंह मंडावा
2- मुंहनोत नैणसी की ख्यात पृ. 222
3- मुंहनोत नैणसी की ख्यात पृ. 224



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