छपनिया अकाल : प्रजा को बचाने कर्ज में डूबे थे कई राजा

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Chhapniya Akaal in Rajasthan, Chhapna Akal


वि. सं. 1956 में राजस्थान के अधिकांश भूभाग में वर्षा की एक बूंद भी नहीं गिरी| नतीजा वर्षा ऋतू की खेती पर निर्भर राजस्थान में वर्षा ना होने के कारण किसान फसल बो ही नहीं सके| इस कारण जहाँ मनुष्य के खाने हेतु अनाज का एक दाना भी पैदा नहीं हुआ, वहीं पशुओं के लिए चारा भी उपलब्ध नहीं हुआ| इस तरह खाने के लिए अनाज, पशुओं के लिए चारा और पीने के लिए वर्षा जल संचय पर निर्भर रहने वाले स्थानों पर पीने के लिए पानी की घोर कमी के चलते पड़े इस दुर्भिक्ष ने राजस्थान के लोगों को पलायन करने के लिए मजबूर कर दिया| भूख व प्यास से पीड़ित पलायन करते लोग व पशु रास्तों में ही मरने लगे| उस अभूतपूर्व अकाल ने पूरे राजपुताना में हाहाकार मचा दिया| राजस्थान के इतिहास में यह दुर्भिक्ष को "छपनिया अकाल" के नाम से आज भी लोगों के जेहन में है| बुजुर्ग बतातें है कि उस छपनिया अकाल में अनाज उपलब्ध ना होने के चलते लोग पेड़ों की सूखी छाल पीसकर खा गए थे|

इस दुर्भिक्ष से अपनी प्रजा की जान बचाने के लिए जयपुर, जोधपुर, बीकानेर के राजाओं ने अकाल राहत के कई कार्य किये, जिनमें मुफ्त खाने का प्रबन्ध महत्त्वपूर्ण था| राजाओं ने जगह जगह प्रजा के लिए सदाव्रत खोले ताकि भूखे लोग वहां खाना खाकर अपनी जान बचा सके| लेकिन उस काल यातायात के सीमित साधनों व संचार माध्यमों की कमी के चलते उक्त सहायता की सूचना सभी लोगों तक नहीं पहुँच सकी और जनता राजाओं द्वारा की गई व्यवस्था का पूरी तरह फायदा नहीं उठा सकी| बावजूद उस दुर्भिक्ष में जनता के लिए मुफ्त खाने की व्यवस्था करने के चलते कई स्थानीय शासकों का खजाना खाली हो गया था और वे भारी कर्ज में डूब गए थे|

स्वतंत्रता आन्दोलन में क्रांति के अग्रदूत राव गोपालसिंह खरवा ने दुर्भिक्ष के पहले वर्ष ही गद्दी संभाली थी| उन्हें अपने शासन के दूसरे वर्ष ही इस भयंकर अकाल का सामना करना पड़ गया| राव गोपालसिंह खरवा ने दुर्भिक्ष से भूखी प्रजा को बचाने हेतु परम उदारता एवं दिलेरी से सहायता कार्य शुरू किया| यद्धपि उनकी आय के साधन स्रोत अति सीमित थे| वे अल्प आय वाले ठिकाने के स्वामी थे और उनका खजाना प्राय: खाली था| परन्तु वे महान हृदय के स्वामी व परम उदार और त्याग की प्रतिमूर्ति थे| भूख से तड़फड़ाती अपनी प्रजा के दुःख का हृदय विदारक दृश्य वे नहीं देख सकते थे| अत: उन्होंने कई स्थानों से कर्ज लिया और अपने इलाके के कई गांव अजमेर व ब्यावर के सेठों के यहाँ गिरवी रखे और भूखी मानवता की सेवा में जुट गए| खरवा में उन्होंने तीन स्थानों पर मुफ्त खाने की व्यवस्था कराई जहाँ खिचड़ा बनता था और भूखे लोगों को खिलाया जाता था| जिन मार्गों पर आवागमन अधिक था उनके मार्गों के साथ लगते स्थानों पर चने बाँटने का प्रबन्ध कराया ताकि राह चलते लोगों को राहत मिल सके| मारवाड़ के समीपस्थ अनेक गांवों के अभाव पीड़ित परिवार भी खरवा आ गए थे, जिनके रहने व खाने की व्यवस्था ठिकाने द्वारा करवाई गई| राव गोपालसिंह खरवा के दीवान रहे राजस्थान के मूर्धन्य साहित्यकार, इतिहासकार ठाकुर सुरजनसिंह जी शेखावत, झाझड़ अपनी पुस्तक "राव गोपालसिंह खरवा" में लिखते है- "उस छपनिया अकाल में सीमित साधनों के होते हुए भी राव गोपालसिंह ने अपने ठिकाने की आय से अधिक द्रव्य भूखी जनता के पालनार्थ दिलखोल कर खर्च किया| उसी समय से उनके ठिकाने पर लाखों का कर्ज भार चढ़ गया| उनके परम उदार चरित्र के दृष्टा समकालीन चारण कवियों ने मानवता के प्रति उनकी सेवा और असीम त्याग को निम्नांकित शब्दों में चिरस्थाई बना दिया-
भय खायो भूपति किता, दुरभख छापनों देख|
पाली प्रजा गोपालसी, परम धरम चहुँ पेख||
राणी जाया राजवी, जुड़ै न दूजा जोड़|
छपन साल द्रब छोलदी, रंग गोप राठौड़||


राव गोपालसिंह खरवा ने उस अभूतपूर्व अकाल के वक्त अपनी प्रजा को भूख बचाने के लिए अपने ठिकाने को कर्ज में डूबो देना साबित करता है कि उनके मन में अपनी प्रजा के प्रति कितना प्यार था| वे प्रजा हित को कितना सर्वोपरि मानते थे और प्रजा की रक्षा ही अपना कर्तव्य समझते थे| उस अकाल के वक्त राजपुताना के सभी शासकों ने अपनी प्रजा को बचाने के लिए अपने सीमित साधनों से भरसक किये| इस सम्बन्ध में राव गोपालसिंह जी खरवा का उदाहरण उन लोगों व नेताओं के मुंह पर तमाचा है जो अक्सर सामंतवाद को कोसते हुये उन पर प्रजा के शोषण का झूठा आरोप लगाकर उन्हें बदनाम करते है| राव गोपाल सिंह जी को प्रजा को बचाने हेतु लिया यह कर्ज कितना महंगा पड़ा, वह ठाकुर सुरजनसिंह जी शेखावत द्वारा लिखित इस घटना से समझा जा सकता है- "उस समय तक खरवा ठिकाने पर काफी कर्ज चढ़ चुका था| तत्कालीन जिला कमिश्नर मिस्टर प्रिचर्ड ने राव गोपालसिंह को किसी एक ही बैंक से कर्ज लेकर अन्य छोटे-मोटे ऋणदाताओं को कर्ज चुकाने की सलाह दी| यद्धपि सलाह समयोचित थी, किन्तु प्रिचर्ड ने राव साहब से इस शर्तनामें पर हस्ताक्षर करवाने चाहे कि जब तक बैंक का कर्ज अदा न हो, तक ठिकाने पर सरकारी नियंत्रण रहेगा| यानी ठिकाना कोर्ट ऑफ़ वर्ड्स के अधीन रहेगा| स्वाभिमानी राव साहब ने उक्त शर्तनामें पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया| मि.प्रिचर्ड अपने पद के प्रभाव से उन्हें दबाना चाहा| राव गोपालसिंह उसका तिरस्कार करते हुए वहां से उठकर चले आये|"


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