करणी माता देशनोक बीकानेर

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Karni Mata Deshnok, Bikaner

राजस्थान के बीकानेर शहर से 32 किलोमीटर दूर दक्षिण दिशा में बीकानेर नागौर सड़क मार्ग पर देशनोक बसा हुआ है। इसी देशनोक में विश्व में चूहों वाले मंदिर के नाम विख्यात, शक्ति के उपासकों का श्रद्धास्थल, गौसेवा व शक्ति की प्रतीक श्री करणी माता का मंदिर है। श्री करणी मढ देशनोक के नाम प्रसिद्ध इस मंदिर में राजस्थान, गुजरात, हरियाणा सहित देश के विभिन्न भागों से देवी के भक्तगण माता करणी के दर्शनार्थ आते है। आश्विन नवरात्री के अवसर पर आस-पास के जिलों सहित दूर-दराज के हजारों श्रद्धालु पदयात्रा करते हुए करणी माता की पूजा अर्चना, उपासना करने हेतु पहुँचते है। विशाल भव्य मंदिर के उन्नत सिंहद्वार के भीतर प्रशस्त प्रांगण है। आगे मध्य द्वार है। अन्दर संगमरमर का चौक बना है। तीसरा अन्तराल द्वार है और सामने निजमढ़ जिसके द्वार पर स्वर्णजटित कपाट है। निजमढ़ अखण्ड दीपशिखा से आलौकित है, निजमंदिर के ठीक मध्य में माता श्री करणी जी की प्रतिमा स्थापित है। मंदिर में जिधर नजर दौड़ाई जाय उधर चूहे ही चूहे नजर आते है, इन्हीं चूहों में एक सफेद चूहिया भी किसी को कभी कभार दिख जाती है। ऐसी मान्यता है कि जिस पर माता की खास कृपा हो, सफेद चूहिया उसे ही नजर आती है।
करणी माता के वंशज ही माता के पुजारी है, जो बारी बारी से एक एक मास पूजा करने का दायित्व संभालते है। शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को बारी बदलती है। जिस पुजारी की बारी रहती है उसका मंदिर छोड़कर जाना निषेध है। अतः बारीदार पुजारी अपनी बारी के एक मास तक मंदिर में रहता है, परिवार की महिला उसे भोजन कराकर संध्या समय अपने घर चली जाती है और पुजारी परम्परा का पालन करते हुए मंदिर में ही सोता है।

राजस्थान के पांच पीरों में से एक मेहाजी मांगलिया द्वारा मेहाजी चारण को प्रदत सुवाप गांव में मेहाजी चारण की धर्म पत्नी देवल देवी के गर्भ से आश्विन शुक्ल सप्तमी, शुक्रवार, वि.सं. 1444 (28 सितम्बर 1387) को श्री करणी माता का जन्म हुआ। करणी माता के पिता मेहाजी किनिया शाखा के चारण थे। जिन्हें जोधपुर जिले की फलौदी तहसील में स्थित सुवाप गांव मेहाजी मांगलिया से उदक में मिला था। माता करणी अपनी पांच बहनों से छोटी थी, वे अपनी माता के गर्भ में 21 माह रही यानी प्रसूति में 21 माह का समय लगा। ऐसा प्रचलित है कि करणी जी के जन्म के समय उनकी माता कुछ समय के लिए मूर्छित हो गई थी और उसी अवस्था में उन्हें साक्षात् दुर्गा के दर्शन हुए। होश आने पर देवल देवी ने अपनी कन्या को देखा तो अपने पास में काली-कलूटी चौड़े मुंह की स्थूल देह वाली कन्या को पाया। करणी माता ने अपने जन्म के समय से चमत्कार दिखाने शुरू कर दिये। उस युग में कन्या के जन्म को अशुभ माना जाता था, फिर मेहाजी के घर पहले से पांच कन्याएं थी। ऐसे में उनकी बुआ ने मेहाजी को प्रसव की जानकारी देते हुए हाथ का डूचका देते हुए कहा कि फिर पत्थर आ गया है अर्थात् लड़की हुई है। उनके इतना कहते ही उनके उस हाथ की सभी अंगुलियाँ ज्यों की त्यों जुड़ी रह गई और खुली नहीं। यह एक तरह से करणी जी के जन्म पर उनका उपहास उड़ाने की सजा थी।

करणी माता का नामकरण संस्कार में रिधूबाई नाम रखा गया। उनके नाम के अनुरूप ही उनके पिता की समृधि प्रतिदिन बढ़ने लगी। कुछ समय बाद करणी माता की बुआ अपने पीहर में आई हुई थी। बुआ अन्य बहनों की अपेक्षा रिधूबाई से ज्यादा प्रेम करने लगी। एक दिन वह रिधूबाई को नहला रही थी तभी रिधूबाई ने उनके हाथ के बारे में पूछा। बुआ ने उनके जन्म के समय की पूरी कहानी बता डाली। तभी रिधूबाई ने बुआ का हाथ अपने हाथ में लिया और कहा यह तो एकदम ठीक है और ऐसा ही हुआ। बुआ का हाथ ठीक हो गया। उसी दिन बुआ ने रिधूबाई का नाम यह कहते हुए कि यह साधारण कन्या नहीं है यह संसार ने अपनी करनी दिखलायेगी। अतः इसका नाम करणी होना चाहिये। तभी से रिधूबाई का नाम करणी पड़ा और करणी अपनी करनी से श्री करणी माता के नाम से विश्व विख्यात हुई।

बुआ का हाथ ठीक करने के बाद छः वर्षीय करणी ने विषैले सर्प द्वारा डसने से अपने मृत पिता को जीवनदान देकर, सुवा ब्राह्मण व अपने पिता को पुत्र प्राप्ति का वरदान देकर, अपने बचपन में ही अपने चमत्कारों से लोगों को प्रभावित कर अपने दैवीय गुण प्रदर्शित कर दिए थे। 27 वर्ष की आयु में करणी जी का साठिका गांव के केलूजी बिठू के पुत्र देपाजी के साथ पाणिग्रहण संस्कार हुआ। चूँकि करणी जी को गायें बहुत प्रिय थी और वो गौसेवा में वह तल्लीन रहती थी, सो विवाह के समय उनके पिता द्वारा भेंट की गई 400 गायों में से 200 गायें वे अपने ससुराल साथ ले गई। चूँकि करणी जी गौसेवा के रत रहती थी, साथ ही देवी का अवतार थी। अतः उन्होंने गृहस्थी चलाने के लिए देपाजी के साथ अपनी छोटी बहिन गुलाब बाई का विवाह करा दिया। इस सम्बन्ध में डा. नरेन्द्रसिंह चारण अपने शोध ग्रन्थ ‘‘श्री करणी माता का इतिहास’’ के पृष्ठ संख्या 55 पर लिखते है- ‘‘देपाजी ने श्रीकरणीजी को पानी का पूछने के लिए जैसे ही रथ का पर्दा उठाया तो देखा कि वहां पर एक सिंह सवार, सूर्य का लावण्य धारण करने वाली रूप और सौन्दर्य की पूंजरूप श्री महाशक्ति स्वयं हाथ में त्रिशूल लिए खड़ी है। यह देखते ही देपाजी दूर जा खड़े हुये तब देवी ने कहा कि आपको मैंने अपना लौकिक और वास्तविक दोनों रूप बता दिए है, आप जिस रूप में चाहें मुझे देख सकते है क्योंकि मेरा भौतिक रूप विरूप, काला रंग, मोटा और चौड़ा चेहरा है। मैं आपकी सहधर्मिणी अवश्य हूँ, परन्तु मेरा यह भौतिक शरीर आपके उपभोग का साधन नहीं है। आप मुझसे गृहस्थ सम्बन्ध नहीं रख सकते। अपनी गृहस्थी के लिए आप मेरी छोटी बहिन गुलाब बाई से विवाह कर लेना और वह आपकी गृहस्थी संभालेगी। मैं तो इस लोक में दीन-दुखियों पर अत्याचार करने वाले, संपत्तियों को लूटने वाले वे लोग, जो अपना कर्तव्य भूल गये है, उनको कर्तव्य का बोध कराने के लिए मुझे इस लोक में आना पड़ा है।’’
करणीजी की ससुराल में पानी की कमी थी। गांव में एक ही कुआ होने के चलते उनकी गायों को पीने के पानी की किल्लत होती थी। गांव के लोग भी उनके ज्यादा पशुधन को पानी की कमी मानते थे। अतः करणीजी ने निर्णय किया कि वे अपना ससुराल छोड़कर अपनी गायों के साथ ऐसे स्थान पर जायेगी जहाँ उनकी गायों को भरपूर चारा और पानी मिल सके। इस निर्णय के बाद करणी जी अपने परिजनों व पशुधन के साथ साठिका गांव का परित्याग कर जांगलू देश के जाल वृक्षों से आच्छादित जोहड़ पहुंची और वहीं अपना स्थाई निवास बनाया। उनका यही स्थान आगे चलकर देशनोक कहलाया। चूँकि करणीजी के चमत्कारों से प्रभावित बहुत से लोग अपने दुखों से छुटकारा पाने व उनसे आशीर्वाद लेने इस स्थान पर आते थे, इस तरह से यह स्थान उस काल उस क्षेत्र का प्रतिष्ठित स्थान मतलब देश की नाक समझा गया और देशनाक से जाना जाने लगा, जो आगे चलकर भाषा के अपभ्रंश के चलते देशनोक हो गया।

उस काल जांगलू देश की स्थिति बहुत खराब थी। उदावत राठौड़, सांखला व भाटी राजपूत, जाट व मुसलमानों के कई छोटे छोटे राज्य थे जो आपस में एक दूसरे के राज्य में लूटपाट किया करते थे। जिससे स्थानीय प्रजा बहुत दुखी थी, जो करणीजी के दैवीय चमत्कारों के बारे सुनकर अपनी समस्या के निदान हेतु उनके पास आती थी। उस काल के कई शासक भी करणीजी के अनन्य भक्त थे। मण्डोर के शासक रणमल व उनके पुत्रों पर भी करणीजी का बहुत प्रभाव था। यही कारण था कि बीकानेर के संस्थापक राव बीका जांगलू क्षेत्र की अराजक स्थिति का लाभ उठाकर वहां अपना राज्य स्थापित करने के उद्देश्य से आये तो वे सबसे पहले करणीजी के पास आशीर्वाद लेने पहुंचे व अपना मंतव्य बताया। तब करणीजी ने वहां की अराजकता से प्रजा को निजात दिलाने हेतु बीका को योग्य पुरुष समझ आशीर्वाद दिया कि ‘‘तेरा प्रताप जोधा से सवाया बढेगा और बहुत से भूपति तेरे चाकर होंगे।’’ यह आशीर्वाद लेकर बीका ने चूंडासर में रहते हुए आप-पास के छोटे छोटे राज्यों को जीतकर जांगलू प्रदेश पर अपना अधिकार कायम किया और करणीजी की सलाह व आशीर्वाद से उस क्षेत्र में गढ़ बनवाकर बीकानेर नगर की स्थापना कर उसे अपनी राजधानी बनाया। करणीजी ने अपने जीवनकाल में सामाजिक सरोकारों से जुड़े कई कार्य किये, जांगलू प्रदेश में राव बीका जैसे योग्य व्यक्ति की सत्ता स्थापित करवाना, लोगों के आपसी झगड़े निपटाना, स्त्री सशक्तिकरण, गौ सेवा आदि के साथ पर्यावरण के लिए माता ने भरपूर कार्य किया। देशनोक में उन्होंने दस हजार बीघा भूमि पर ओरण बनवाया जो पर्यावरण व पशुधन के लिए वरदान साबित हुआ। यही नहीं करणीजी की प्रेरणा से प्रेरित होकर भविष्य में भी राजपूत राजाओं द्वारा अपने राज्यों में इस तरह के ओरण हेतु भूमि छोड़ने की परम्परा बन गई जो पर्यावरण के लिए वरदान साबित हुई।

150 वर्ष की आयु होने व अपने दैवीय अवतारों के कार्य पूर्ण होने पर करणीजी ने अपनी भौतिक देह त्याग करने का मानस बनाया और अपनी इच्छा परिजनों को बताई कि मैं जैसलमेर होती हुई तेमड़ाराय के दर्शन करके बहिन बूट और बहुचरा से मिलने खारोड़ा (सिंध, पाकिस्थान) जाऊँगी और वापसी के समय रास्ते में अपनी भौतिक देह का त्याग करुँगी। वि.सं. 1594 (1537 ई.) के माघ मास में अपने ज्येष्ठ पुत्र पूण्यराज, सारंगिया विश्नोई (रथवान) और एक सेवक के साथ करणीजी अपनी इस यात्रा के लिए रवाना हुई। वापसी यात्रा के समय वि.सं. 1595 (1538 ई.) चैत्र शुक्ला नवमी गुरुवार को गड़ियाला और गिराछर के बीच धीनेरू गांव की तलाई के पास पहुँचने पर करणीजी ने रथ को रुकवाया और वहीं अपनी देह त्याग हेतु मिट्टी की एक चौकी बनवाकर उस बैठे। रथवान सारंगिया विश्नोई को आदेश दिया कि उनके शरीर पर पानी उढेल दे। डा. नरेंद्रसिंह चारण के अनुसार ‘‘रथवान सारंगिया विश्नोई ने झारी लेकर उसका पानी उन पर उढेल दिया। ज्योंही झारी का पानी उनके भौतिक शरीर पर गिरा त्योंही उनके शरीर से एक ज्वाला निकली और उस ज्वाला में उसी क्षण उनका वह भौतिक शरीर अदृश्य हो गया। वहां कुछ भी नहीं था। ज्योति में ज्योतिर्लीन हो गये। इस प्रकार वि.सं. 1595 (1538 ई.) चैत्र शुक्ला नवमी गुरुवार को श्रीकरणीजी ज्योतिर्लीन हुए।’’

श्री करणी माता के मंदिर में आज भी दूर-दराज से भक्तगण उनके दर्शनार्थ आते है। राव बीका के वंशज बीका राठौड़ श्री करणी माता को अपनी ईष्ट देवी मानते हुए उनकी आराधना, उपासना करते है।


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