महाराज शक्ति सिंह, मेवाड़

Gyan Darpan
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Maharaj Shakti Singh History in Hindi

यहीं शक्तिसिंह आ के मिला, राम से ज्यों था भरत मिला।
बिछुड़े दिल यदि मिलते हों तो, पगले अब तो मिलने दे।

लेखक :छाजू सिंह, बड़नगर

शक्तिसिंह मेवाड़ के राणा उदयसिंह के द्वितीय पुत्र थे। यह राणा प्रताप से छोटे थे। शक्तिसिंह अपने पिता के समय ही मेवाड़ छोड़कर मुगल दरबार में चले गये थे। शक्तिसिंह के मेवाड़ छोड़ने का कारण अपने बड़े भाई प्रताप से शिकार के मामले में कहासुनी हो गई थी। शक्तिसिंह के अभद्र व्यवहार के कारण उदयसिंह अप्रसन्न हो गए थे। अतः अपने पिता से रुष्ट होकर वह अकबर की सेना में चले गए||

अकबर मेवाड़ पर चढाई करने का इरादा कर धौलुपर में ठहरा हुआ था। जहाँ शक्तिसहि भी उपस्थित थे। एक दिन अकबर ने उनसे कहा कि बड़े-बड़े राजा मेरे अधीन हो चुके हैं, केवल राणा उदयसिंह अब तक मेरे अधीन नहीं हुये, अतः मैं उन पर चढ़ाई करने वाला हूँ, तुम मेरी क्या सहायता करोगे ? यह बात शक्तिसिंह के मन को कचोट गई। उन्होंने सोचा, ‘शाही इरादा तो मेवाड़ पर सेना लेकर चढ़ाई करने का पक्का लगता है। यदि मैं बादशाह के साथ मेवाड़ पहुँचा तो वहाँ लोगों को मन में संदेह होगा कि मैं ही अपने पिता के राज्य पर मुगल बादशाह को चढ़ा लाया हूँ। इससे मेरी बदनामी होगी। अपने चुने हुए साथियों के साथ शाही शिविर छोड़कर वह रातों-रात मेवाड़ आ गये। उन्होंने उदयसिंह को अकबर के चित्तौड़ पर चढ़ाई करने की खबर दी। इस पर सब सरदार दरबार में बुलाए गए। युद्ध से निपटने के लिए मन्त्रणा हुई। उस युद्ध परिषद' में शक्तिसिंह भी शामिल थे। चित्तौड़ में हुए ऐतिहासिक परामर्श के बाद शक्तिसिंह का क्या हुआ था कोई नहीं कह सकता । सम्भव है वह चित्तौड़ के आक्रमण के समय काम आ गये या घायल हो गये| किसी भी ऐतिहासिक ग्रन्थ में इसके बाद उनका नाम नहीं मिलता है|

चारण कवि गिरधर आशिया द्वारा रचित "सगत रासो' से कुछ गुत्थी सुलझती है। यह रचना वि.सं. 1721 (ई.स. 1664) के आसपास की है। लेकिन इसका दिया हुआ घटना क्रम अभी इतिहासकार स्वीकार नहीं कर पाए हैं। सगत रासो के अनुसार चित्तौड़ पहुँचने पर शक्तिसिंह को दुर्ग रक्षकों ने ऊपर नहीं चढ़ने दिया और वह बिना पिता से मिले ही, डूंगरपुर चले गये। वहाँ से भीण्डर के निकट बेणगढ़ जाकर रहने लगे। यहाँ उन्होंने मिर्जा बहादुर की फौज को परास्त किया।

कनल टॉड ने हल्दीघाटी के रणक्षेत्र से राणा प्रताप के लौटने का वर्णन करते हुए लिखा है। जब राणा प्रताप अपने घायल चेतक पर सवार होकर जा रहा थे, तब दो मुगल सवारों ने उसका पीछा किया। वे राणा के पास पहुँचकर उन पर प्रहार करने वाले थे । इतने में पीछे से आवाज आई - ‘‘आो नीला घोड़ा रा असवार।” प्रताप ने मुड़कर देखा तो पीछे उनका भाई शक्तिसिंह घोड़े पर आता हुआ दिखाई दिया। व्यक्तिगत द्वेष से शक्तिसिंह अकबर की सेवा में चले गए थे। और हल्दीघाटी के युद्ध में वह शाही सेना की तरफ से लड़े था। मुगल सैनिकों द्वारा प्रताप का पीछा करना उन्होंने देख लिया, जिससे उसका भ्रातृप्रेम उमड़ आया। शक्तिसिंह ने दोनों सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया और प्रताप को अपना घोड़ा दिया। वहीं चेतक घोड़ा मर गया था। जहाँ उसका चबूतरा बना हुआ है।
किसी भी फारसी तवारीख में उल्लेख नहीं है कि शक्तिसिंह ने इस युद्ध में शाही सेना की तरफ से भाग लिया हो और न ही तत्कालीन मेवाड़ के ऐतिहासिक ग्रन्थों में है। हल्दीघाटी युद्ध के बहुत बाद के कुछ ग्रन्थों में इस घटना का जिक्र है। राजप्रशस्ति महाकाव्य जो कि इस युद्ध के लगभग सौ वर्ष बाद का है, उसमें यह घटना है। यह साक्ष्य ठीक नहीं है क्योंकि इतने वर्षों में कई अनिश्चित बातें भी प्रसिद्धि के कारण सही मान ली जाती हैं। शक्तिसिंह के बारे में शाही सेना में शामिल होने व हल्दीघाटी के युद्ध में शामिल होने सम्बन्धी सभी कथाएँ काल्पनिक हैं। शक्तिसिंह अकबर से मानसिंह के मार्फत मिले अवश्य थे, लेकिन वहाँ रुके नहीं वापस लौट आये, हल्दीघाटी के युद्ध में प्रताप का न तो किसी ने पीछा किया और न ही शक्तिसिंह वहाँ थे।

शक्तिसिंह के वंशज शक्तावत सीसोदिया कहलाते हैं। भीण्डर इनका मुख्य ठिकाना है। इनकी उपाधि ‘महाराज' है। ये मेवाड़ में प्रथम श्रेणी के उमराव हैं। मेवाड़ में और भी कई ठिकाने शक्तावतों के हैं। शक्तावतों ने मेवाड़ की सेवा करके नाम कमाया था । हल्दीघाटी के बाद राणा प्रताप के साथ उनके हर सैनिक अभियानों में रहकर मेवाड़ की सेवा की। जहाँगीर के साथ राणा अमरसिंह की लड़ाइयों में ये राणा अमरसिंह के साथ रहे। ऊँटाले के युद्ध में बलू शक्तावत ने अद्भुत पराक्रम दिखाया। ऊँटाले के किले के दरवाजे पर, जिसके किवाड़ों पर तीक्ष्ण भाले लगे हुए थे, हाथी टक्कर नहीं मार रहा था क्योंकि वह मुकना (बिना दाँत का) था। वीर बलू भालों के सामने खड़ा हो गया और महावत को कहा कि अब टक्कर दिला। वीर बलू इस तरह से वीरतापूर्वक काम आया। ऊँटाले पर अमरसिंह का अधिकार हो गया। विपद काल में मेवाड़ के राणाओं की सेवा के कारण शक्तावतों का यशोगान हुआ है। शक्तावत अपनी शूरवीरता के कारण इतिहास में प्रसिद्ध हैं।


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