आर. टी. आई : सूचना का अधिकार

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सूचना के अधिकार अधिनियम के दस पूरे होने पर इस अधिनियम पर विचार व्यक्त कर रहे है फरीदाबाद, हरियाणा से प्रकाशित होने वाले हिंदी समाचार पत्र "हरियाणा प्रभात टाइम्स" के संपादक श्री सुशील सिंह
सूचना का अधिकार कानून RTI भारतवासियों के लिए एक बड़ी उपलब्धि माना गया है। सरकारी कामकाज में पारदर्शिता व अधिकारियों में उत्तरदायित्व का भाव लाने में इसकी उल्लेखनीय भूमिका रही है। इसकी वजह से जहाँ कई बड़े घोटालों का पर्दाफाश हुआ, वहीं कई बड़े नेता व ब्यूरोक्रिएट जेल की हवा खा रहे है| कुल मिलाकर आरटीआई अर्जी आम नागरिक के हाथ में असरदार औजार के रूप में सामने आई। शुरुआत से ही सत्ताधारी लोगों ने इसे भोथरा बनाने की भरपूर कोशिशें शुरू कर दीं। संतोषजनक बात यह रही कि सिविल सोसायटी के प्रयासों से यह हर बार विफल रही। अब जबकि यह कानून अपनी दसवीं वर्षगांठ पर पहुंच रहा है, तो ऐसे प्रभावी लोक-हस्तक्षेप की जरूरत और भी उत्सुकता से महसूस हो रही है।

गैरसरकारी संस्था कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव (सीएचआरआई) ने इस मौके पर जारी अपनी रिपोर्ट में आरटीआई से संबंधित कुछ समस्याओं का जिक्र किया है। आरटीआई कार्यकर्ताओं की सुरक्षा का सवाल प्रमुख रूप से जेहेन मे बार बार दस्तक देता है। प्राप्त आंकड़ो के अनुसार बीते दस सालों में 39 आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या हुई जबकि 275 कार्यकर्ताओं को मानसिक ता शारीरिक तौर पर प्रताड़ना दी गयी|

दूसरी समस्या इस कानून के प्रति सरकार की उदासीनता का है, जिस कारण कई राज्यों में तो सूचना आयोग धारहीन होते नजर आते हैं। केंद्रीय सूचना आयुक्त का पद भी कई महीनों खाली रहा। नई नियुक्ति के लिए सरकार तब प्रेरित हुई, जब मामला न्यायपालिका में गया। पूरे देश पर गौर करें, तो सीएचआरआई की रिपोर्ट बताती है कि 2014 में सूचना आयुक्तों के 14 प्रतिशत पद खाली थे। यह संख्या अब 20 फीसदी हो गई है। तमिलनाडु, गोवा, ओडिशा और उत्तराखंड में तो मुख्य सूचना आयुक्त के पद शायद अभी भी खाली पड़े हैं।

इस अतिसंवेदनशील पद पर कैसे लोगों को शोभायमान किया गया, इस पर ध्यान देना बहुत जरुरी है। आरटीआई एक्ट में कहा गया है कि सूचना आयुक्त सार्वजनिक जीवन की उन हस्तियों को बनाया जाएगा, जिन्हें कानून, विज्ञान, तकनीक, समाज सेवा, प्रबंधन, पत्रकारिता, या प्रशासन का विस्तृत ज्ञान एवं अनुभव हो। लेकिन सत्ताधारी लोगों ने यहाँ भी अपनी खूब चलायी और इस क़ानून को अपनी बापौती समझते हुए ज्यादातर राज्य सरकारों ने रिटायर्ड आईएएस या आई पी एस अफसरों की नियुक्ति की है, जबकि अरुणाचल प्रदेश में तो भारोत्तोलन परिसंघ के पूर्व अध्यक्ष को यह जिम्मेदारी सौंप दी गई। इसके अलावा अधिकांश राज्यों ने नागरिकों को उनकी मातृभाषा में उत्तर देने की व्यवस्था करने में बहुत बेरुखा रवैय्या अपनाया है।

ये सारी प्रवृत्तियां इस महत्वपूर्ण कानून को कमज़ोर व धता बनाने की मंशाओं का साफ़ संकेत देती हैं। निष्कर्ष है कि सत्ता व ब्यूरोक्रेसी किसी भी हालत मे जनता के सामने अपने आप को पारदर्शी नहीं होने देना चाहती। उसे ऐसा होने के लिए मजबूर करना पड़ता है। अपने अधिकारों के प्रति जागरूक जनसमुदाय ही ऐसा कर पाते हैं। भारतीय समाज ने आरटीआई कानून बनवाने में सफलता पाई, तो अब यह भी उसी का फर्ज है कि वह इसे सार्थक बनाए रखने के लिए भी जहां जरूरी हो, प्रभावी हस्तक्षेप करे।

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