शोषक नहीं प्रजा पोषक थे राजा

Gyan Darpan
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आजादी के बाद देश के सभी राजनैतिक दलों द्वारा सामंतवाद और देशी रियासतों के राजाओं को कोसना फैशन के समान रहा है| जिसे देखो मंच पर माइक हाथ में आते ही मुद्दे की बात छोड़ राजाओं को कोसने में थूक उछालकर अपने आपको गौरान्वित महसूस करता है| इस तरह नयी पीढ़ी के दिमाग में देशी राजाओं के प्रति इन दुष्प्रचारी नेताओं ने एक तरह की नफरत भर दी कि राजा शोषक थे, प्रजा के हितों की उन्हें कतई परवाह नहीं थी, वे अय्यास थे आदि आदि|
लेकिन क्या वाकई ऐसा था? या कांग्रेसी नेता राजाओं की जनता के मन बैठी लोकप्रियता के खौफ के मारे दुष्प्रचार कर उनका मात्र चरित्र हनन करते थे?
यदि राजा वाकई शोषक होते तो, वे जनता में इतने लोकप्रिय क्यों होते ? कांग्रेस को क्या जरुरत थी राजाओं को चुनाव लड़ने से रोकने की ? यह राजाओं की लोकप्रियता का डर ही था कि 1952 के पहले चुनावों में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने राजाओं को चुनावी प्रक्रिया से दूर रखने के लिए स्पष्ट चेतावनी वाला व्यक्तव्य दिया कि – यदि राजा चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ खड़े हुए तो उन्हें अपने प्रिवीपर्स (हाथखर्च) और विशेषाधिकारों से हाथ धोना पड़ेगा|

यह धमकी भरा व्यक्तव्य साफ़ करता है कि राजा जनमानस में लोकप्रिय थे और नेहरु को डर सता रहा था कि राजाओं के सामने उसे बुरी तरह हार का सामना करना पड़ेगा और हुआ भी यही| जोधपुर के महाराजा हनवंत सिंह जी ने उस चुनाव में राजस्थान के 35 स्थानों पर अपने समर्थित प्रत्याशी विधानसभा चुनाव में उतारे जिनमें से 31 उम्मीदवार जीते| मारवाड़ संभाग में सिर्फ चार सीटों पर कांग्रेस जीत पाई| यह जोधपुर के महाराजा की लोकप्रियता व जनता से जुड़ाव का नतीजा ही था कि सत्तारूढ़ कांग्रेस के तत्कालीन मुख्यमंत्री जयनारायण व्यास जो कथित रूप से जनप्रिय थे, जिनके नाम से आज भी जोधपुर में कई भवन, विश्वविद्यालय आदि कांग्रेस ने बनवाये, कांग्रेस की पूरी ताकत, राज्य के सभी प्रशासनिक संसाधन महाराजा के खिलाफ झोंकने के बावजूद सरदारपूरा विधानसभा क्षेत्र से बुरी तरह हारे| उस चुनाव में महाराजा के आगे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आरुढ़ जयनारायण व्यास को मात्र 3159 मत मिले थे| यही नहीं व्यास जी ने डर के मारे आहोर विधानसभा क्षेत्र से भी चुनाव लड़ा, जहाँ महाराजा ने एक जागीरदार को उतारा, वहां भी व्यास जी नहीं जीत पाये| उसी वक्त लोकसभा चुनाव में भी महाराजा के आगे कांग्रेस को मात्र 38077 मत मिले जबकि महाराजा को 1,39,833 मत मिले|

उक्त चुनाव परिणाम साबित करते है कि देशी राजाओं व प्रजा के बीच कोई मतभेद नहीं था| झूंठे आरोपों के अनुरूप यदि राजा प्रजा के शोषक होते तो प्रजा के दिल में उनके प्रति इतना प्यार कदापि नहीं होता|

ऐसे में राजाओं के आलोचक एक बात कहकर अपने दिल को शांत कर सकते है कि राजाओं के पास साधन थे अत: वे चुनावों में भारी पड़े, लेकिन जो दल लोकप्रिय होता है और जनता जिसके पीछे होती है उसे चुनावों में साधनों की जरुरत नहीं होती| भैरोंसिंह जी के पास उस चुनाव में पैदल घुमने के अलावा कोई चारा नहीं था फिर भी वे बिना धन, बिना साधन विधानसभा में पहुंचे थे| केजरीवाल की पार्टी भी इसका ताजा उदाहरण है कि जनता जिसके पीछे हो उसे किसी साधन व धन की जरुरत नहीं पड़ती|

अत: साफ़ है कि राजाओं के खिलाफ शोषण का आरोप निराधार झूंठ है और मात्र उन्हें चुनावी प्रक्रिया से दूर रखने का षड्यंत्र मात्र था|

नेहरु के उक्त धमकी भरे वक्तव्य का जबाब जोधपुर महाराजा ने निडरता से इस तरह दिया जो 7 दिसंबर,1951 के अंग्रेजी दैनिक “हिंदुस्तान-टाइम्स” में छपा –
“राजाओं के राजनीति में भाग लेने पर रोक टोक नहीं है| नरेशों को उन्हें दिए गए विशेषाधिकारों की रक्षा के लिए हायतौबा करने की क्या जरुरत है? जब रियासतें ही भारत के मानचित्र से मिटा दी गई, तो थोथे विशेषाधिकार केवल बच्चों के खिलौनों सा दिखावा है| सामन्ती शासन का युग समाप्त हो जाने के बाद आज स्वतंत्र भारत में भूतपूर्व नरेशों के सामने एक ही रास्ता है कि वे जनसाधारण की कोटि तक उठने की कोशिश करें| एक निरर्थक आभूषण के रूप में जीवन बिताने की अपेक्षा उनके लिए यह कहीं ज्यादा अच्छा होगा कि राष्ट्र की जीवनधारा के साथ चलते हुए सच्चे अर्थ में जनसेवक और उसी आधार पर अपने बल की नींव डाले|
दिखने के यह विरोधाभास सा लग सकता है, लेकिन सत्य वास्तव में यही है कि क्या पुराने युग में और क्या वर्तमान जनतंत्र के युग में, सत्ता और शक्ति का आधार जनसाधारण ही रहा है| समय का तकाजा है कि राजा लोग ऊपर शान-बान की सूखी व निर्जीव खाल को हटायें और उसके स्थान पर जनता से सीधा सम्पर्क स्थापित करके मुर्दा खाल में प्राणों में संचार करें| उन्हें याद रखना चाहिए कि जनता में ही शक्ति का स्त्रोत निहित है, नेतृत्व और विशेषाधिकार जनता से ही प्राप्त हो सकते है| मैं अपने विषय में निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि मुझे जनसाधारण का जीवन बिताने में गर्व है|”

और अपने इस वक्तव्य में जोधपुर महाराजा ने जनता के सामने अपने बहुआयामी व्यक्तित्व की छाप छोड़ी| वे चुनाव में उतरे, जनता को उन्होंने एक ही भरोसा दिलाया – “म्है थां सूं दूर नहीं हूँ” (मैं आप लोगों से दूर नहीं हूँ)|

इस नारे ने अपने लोकप्रिय राजा को जनता के और पास ला खड़ा किया और मारवाड़ में कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ कर दिया| पर अफ़सोस चुनाव परिणाम आने से पहले ही महाराजा हनुवंत सिंह विमान दुर्घटना के शिकार हो गए और भ्रष्ट व छद्म व्यक्तित्त्व वाले नेताओं को चुनौती देने वाला नरपुंगव इस धरती से हमेशा के लिए विदा हो गया|




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8टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (06-10-2014) को "स्वछता अभियान और जन भागीदारी का प्रश्न" (चर्चा मंच:1758) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच के सभी पाठकों को
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. रतन जी आपको राजाओँ की सनक का उदाहरण देता हूँ जो राजस्थान मेँ ही घटित हुआ है वो है 'चिपको आन्दोलन' का। क्या इस जमाने मेँ भी सैकङो लोगो को उस तरह इतनी बेरहमी से मौत के घाट उतारा जा सकता है? जिनकी गलती लेश मात्र भी नहीँ थी। आज कोई भी सनकी नेता इतनी मनमानी नहीँ कर सकता जितनी राजा करते थे। अतः लोकतंत्र मेँ सुधार की बात की जा सकती है परन्तु उसकी जगह राजतंत्र का विकल्प रखना गलत होगा।

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    1. आपको बता दूँ उस नरसंहार का आदेश महाराजा साहब ने नहीं उनके दीवान भण्डारी ने खेजड़ली में ही बिना जोधपुर से अनुमति दिया था। और एक बात जो आप लोकतंत्र की कह रहे हैं । 21 लोगों जिनमें एक 17 साल का लड़का था की हत्यारी फूलन को बचाकर संसद भेजा गया इसी डेमोक्रेसी में। और पहले ही बता दूँ इनमें असली गुनहगार श्रीराम और लालाराम नहीं मरे बल्कि बेगुनाह मारे गए। बूथ लूट रहे देवीलाल चौटाला के पोते को बंधक बना लिया तो क्या तरीका अपनाया? खून जलता है मेरा जब लोकतंत्र का नाम सुनता हूँ। जाटों ने 2008 में हम सिद्धों के 2 आदमी मारे पर हमें इन्साफ न मिला न मिलेगा क्यों? क्योंकि हमारी पूरी जाति एक हो जाये तो भी एक भी MLA सीट का परिणाम नहीं बदल सकती। आज बीकानेर में गंगासिंहजी का राज होता तो बात ही और होती।

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    2. खेजडली वाली घटना काल्पनिक है उस पर कभी तथ्यों के साथ विस्तार से जानकारी दूंगा.

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  3. रतनसिंह जी कभी Gen HH शेरऐ राजपूताना महाराजा गंगासिंहजी के बारे में भी लिख दो। जिन्होंने 484 मील रेलवे लाइन बिछवाई। अपने बाद chamber of princes के Chancellor बनाकर पटियाला महाराजा से सतलुज का पानी लेकर गंगनहर बनवाई जिसके लिए उन्हें आधुनिक युग का भगीरथ कहा गया। और गंगा रिसाला के तो क्या कहने। PBM Hospital, Dungar College हर चीज़ टॉप। लेकिन आपने तो उनकी एक बार भी तारीफ नहीं कि। बीकानेर हाउस से कोई दिक्कत?

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    1. श्रवण जी
      @ महाराजा गंगा सिंह जी पर लिखने का बहुत मन है पर मेरे पास उनके बारे प्रमाणित जानकारी नहीं है ! पिछले दिनों जयपुर यात्रा के दौरान अभिमन्यु राजवी बना से भी इस बारे में बात हुई थी, तब उन्होंने वादा किया है वे मुझे सिद्धि कुमारी जी से मिलवायेंगे और बीकानेर के सम्बन्ध में ऐतिहासिक जानकारियां दिलवाएंगे !!

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    2. रतनसिंहजी दैनिक भास्कर के बीकानेर संस्करण में रोज "बीकानेर इतिहास दर्शन" नाम से एक कॉलम छपता है जिसे शिवकुमार भनोत लिखते हैं, बीकानेर के इतिहास की उनसे ज्यादा प्रमाणिक जानकारी आज के टाइम में किसी को नहीं है आप उनसे संपर्क कीजिए. वे पहले डूंगर कॉलेज में इतिहास विभाग में थे बाद में शायद बीकानेर यूनिवर्सिटी में चले गए. उन्होंने गंगासिंह जी के राज के सारे डॉक्यूमेंट छान रखे हैं. ज्यादातर जानकारी तो आप "शिव कुमार भनोत" गूगल करते ही मिल जाएगी|

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