मरू -मान

Gyan Darpan
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पील ,मीठी पीमस्यां
खोखा, सांगर, बेर |
मरु धरा सु जूझता
खींप झोझरू कैर ||

जूझ जूझ इण माटी में
बन ग्या कई झुंझार ।
सिर निचे दे सोवता
बिन खोल्यां तरवार ॥

ऊँचा रावला कोटड़याँ
सिरदारां की पोळ |
बैठ्या सामां गरजता
मिनखां की रमझोळ ॥

मरुधर का बे मानवी
कतरा करां बखाण
सर देवण रे साट में
नहीं जाबा दी आण ||

चाँदण उजली रातडली,
सोना जेड़ी रेत् |
सज्या -धज्या टीबड़ा,
ज्यूँ सामेळ जनेत ||

ऊँडो मरू को पाणी है,
उणसु ऊंडी सोच ।
साल्ल रात्यूं आपजी न
जायोडा री मोच ||

चीतल, तीतर, गोयरा
छतरी ताण्या मोर |
मोड्यां कुहकु -कुहकु बोलती
दिन उगता की ठोड़ ||

बे नाडयाँ बे खालडया
बे नदयां का तीर |
सुरग भलेही ना मिले,
बी माटी मिले शरीर ॥

लेखक : गजेन्द्रसिंह सिंह शेखावत

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3टिप्पणियाँ

  1. आपकी लिखी रचना मंगलवार 23 सितम्बर 2014 को लिंक की जाएगी........... http://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (22-09-2014) को "जिसकी तारीफ की वो खुदा हो गया" (चर्चा मंच 1744) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच के सभी पाठकों को
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं
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