नदी की व्यथा

Unknown
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शांत वातावरण में मदमस्त बहती जा रही थी
हिलोरे लेती सजती रहती...
कभी उफनती ,तो कभी शांत ...
बस बहती जा रही थी |

सौलह श्रृंगार कर,वन सौन्दर्य लिए..
मै भी कभी नवयुवती थी |

तुम्हारा यूँ प्रतिदिन निहारना ..
मुझे भाने लगा..
किसी देवी भांति,पूजा करना...
मुझे भाने लगा |

सच कहूँ तुम्हारे प्रेम वेग में
बहती जा रही थी |

पर आज...

तुम्हारा यूँ अचानक बदलना..
मन को कुछ खटका |

ना समझना यह कि तुमने मेरा आँचल मेला कर डाला
नदी हूँ मै नहीं कोई गन्दा नाला |

कैसे पथिक हो प्यास बुझा के गन्दा कर डाला
मै नदी हूँ हर गन्दगी धुल जाती, मुझ में |

मेरा वजूद मेरा सौन्दर्य है मुझ से
पलट कर न देखना, कर लो खुद पर इतनी कृपा |

मेरा भाव हो या मेरा सौन्दर्य
बह जाते है इसमें तुमसे कई |

राजुल शेखावत


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8टिप्पणियाँ

  1. बहुत शानदार .

    भूपेन हजारिका की कविता याद आती है .
    गंगा बहती हो क्यों
    नैतिकता नष्ट हुयी,
    मानवता भ्रष्ट हुयी निर्लज्ज भाव से बहती हो क्यों....

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  2. Y man ke bhav sirf Nadi ke hi nahi Aurat ki bhi yahi vaytha h baisa ... bhut hi gahrai liye h aapke shabd .... ese hi likhte rahe ....badhai

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  3. एक्बेह्तारीन सार्थक अभिव्यक्ति ,राजुल जी

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