हिलोरे लेती सजती रहती...
कभी उफनती ,तो कभी शांत ...
बस बहती जा रही थी |
सौलह श्रृंगार कर,वन सौन्दर्य लिए..
मै भी कभी नवयुवती थी |
तुम्हारा यूँ प्रतिदिन निहारना ..
मुझे भाने लगा..
किसी देवी भांति,पूजा करना...
मुझे भाने लगा |
सच कहूँ तुम्हारे प्रेम वेग में
बहती जा रही थी |
पर आज...
तुम्हारा यूँ अचानक बदलना..
मन को कुछ खटका |
ना समझना यह कि तुमने मेरा आँचल मेला कर डाला
नदी हूँ मै नहीं कोई गन्दा नाला |
कैसे पथिक हो प्यास बुझा के गन्दा कर डाला
मै नदी हूँ हर गन्दगी धुल जाती, मुझ में |
मेरा वजूद मेरा सौन्दर्य है मुझ से
पलट कर न देखना, कर लो खुद पर इतनी कृपा |
मेरा भाव हो या मेरा सौन्दर्य
बह जाते है इसमें तुमसे कई |
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बहुत शानदार .
जवाब देंहटाएंभूपेन हजारिका की कविता याद आती है .
गंगा बहती हो क्यों
नैतिकता नष्ट हुयी,
मानवता भ्रष्ट हुयी निर्लज्ज भाव से बहती हो क्यों....
भावमयी कविता
जवाब देंहटाएंY man ke bhav sirf Nadi ke hi nahi Aurat ki bhi yahi vaytha h baisa ... bhut hi gahrai liye h aapke shabd .... ese hi likhte rahe ....badhai
जवाब देंहटाएंbhut hi sunder rachna hai,atmik abhivakti hai,badhai ho...
जवाब देंहटाएंbahoot sundar
जवाब देंहटाएंबहुत शानदार
जवाब देंहटाएंएक्बेह्तारीन सार्थक अभिव्यक्ति ,राजुल जी
जवाब देंहटाएंatti uttam rachna
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