मीरांबाई

Gyan Darpan
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साहित्यिक क्षेत्र में भक्ति भागीरथी मीरांबाई राजपूत समाज ही नहीं भारतीय नारी समाज की माला की सुमेरु-मणि है| मध्यकालीन संत तथा भक्त-कवियों में कबीर, तुलसीदास और सूरदास के समकक्ष साहित्य जगत में उसका स्थान है| वह राजस्थान के राठौड़ कुल की मेड़तिया शाखा के राव दूदा की पोत्री तथा ठाकुर रतन सिंह बजोली की पुत्री थी और हिंदुआ सूर्य के विरुद से अलंकृत मेवाड़ राजवंश के प्रतापी शासक महाराणा संग्रामसिंह के राजकुमार भोजराज की पत्नी थी| जन्म-जात भक्ति संस्कार सम्पन्न मीरांबाई भगवान् कृष्ण की अनन्य उपासिका और महान कवयित्री थी| यही एक मात्र भारतीय नारी है जिसकी भक्ति साधना का पद साहित्य उसके जीवनकाल में ही प्रान्तीय सीमाओं का अतिक्रमण कर अखिल भारत भूमि में अपना स्थान ग्रहण करने में सफल हुआ था|

राजपूत संस्कृति और परंपराओं से अनभिज्ञ अनेक संप्रदायाचार्यों अथवा अनेक अनियायियों ने मीरां को अपने अपने सम्प्रदाय गुरुओं का शिष्यत्व ग्रहण करने की बातें कही है, परन्तु वह केवल कपोल कल्पना और अपने सम्प्रदाय का महत्व प्रदर्शन करने का असफल प्रयास मात्र है| वह तो स्वयं सिद्ध और गिरिधर गोपाल की अपनी ही अंशावतार थी| राजनितिक, सामाजिक और साहित्यिक तीनों रूपों में उसका स्थान उच्च है| उसको किसी का शिष्यत्व ग्रहण करने की आवश्यकता ही कहाँ थी? उसकी प्रसिद्धि से प्रभावित होकर अनेक भक्तों ने उसके नाम पर अनेकों पदों की रचना कर अनेक लौकिक प्रसंग जोड़ दिये है जो सर्वथा असंगत और मिथ्या है|

मीरांबाई ने केवल मुक्ताक पदों की रचना की थी और वे पद राजपूत समाज की सांस्कृतिक परंपराओं और मर्यादाओं की सीमा के भीतर ही निश्चित कसौटी से चुने जा सकते है| उसके नाम से “नरसी मेहता का मायरा” “मीरां नी परची सत्य भामाजी नूं रुस्णु” तुलसीदास गुसांई को लिखित पत्र और भक्त रेदास की शिष्या आदि-आदि कई अनर्गल सन्दर्भ साथ जोड़ दिये| यह सब उस युग की मर्यादा आवागमन के साधन, रीती-रिवाज तथा परम्पराओं आदि के परिवेश में विचारणीय है| मीरांबाई के पद कविवर बिहारीलाल के दोहों की तरह नावक के तीर अथवा स्यारी के मन्त्र है जो भक्त के हृदय को छेदकर आरपार निकल जाते है|

मीरांबाई राजस्थानी, बृज, गुजराती और पंजाबी भाषा में रचना करती थी| वह केवल और केवल कृष्ण की प्रतिमा के सम्मुख नृत्य, वादन और गायन करती थी| भक्त कवि नाभादास ने अपनी अमरकृति “भक्तमाल” में मीरां के जीवन का संक्षिप्त में इस प्रकार वर्णन किया है—

सदृश गोपिका प्रेम प्रकट कलियुगहि दिखायो|
निर अंकुश पति निडर रसिक यश रसना गायो||
दुष्टनि दोष विचार, मृत्यु उधम कीयो|
वार न बांको भयो, गरल अमृत ज्यों पियो||
भक्ति निशान बाजे के, काहूँ तै नाहिन लजी|
तजि मीरा गिरधर भजी||


लोकनिधि मीरांबाई हिंदी साहित्य में सर्वाधिक स्थापित,चर्चित और प्रिसिद्धि प्राप्त भक्त कवयित्री है| अत: इस सम्बन्ध में अधिक लिखना पिष्टप्रेषण होगा|

लेखक : सौभाग्यसिंह शेखावत


राजपूत नारियों की साहित्य साधना की अगली कड़ी में परिचय दिया जायेगा बीकानेर के राजकुमार पृथ्वीराज(जो साहित्य जगत में "पीथल" के नाम से प्रसिद्ध है) की पत्नी चंपादे का |

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8टिप्पणियाँ

  1. महान भक्त मीरा बाई नैसर्गिक गुणों से परिपूर्ण थी।भाषा के सुन्दर अलंकारों से पूरित "बाबोसा" की लेखनी के रसास्वादन से ज्ञान पिपासा और अधिक बलवती हो गयीहै,जारी रखिये....।

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  2. मीरा ने मोहन को ही मोह लिया, उन्हें किसी के शिष्यत्व की क्या आवश्यकता भला..

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  3. सादर अभिवादन!
    --
    बहुत अच्छी प्रस्तुति!
    इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (27-10-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
    सूचनार्थ!

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  4. ओ चरण -कमल की जनम-जनम की दासी ,अविजेय वेदना के गीतों की रानी ,
    औ मीरा ,तेरी विरह-रागिनी जागी ,तो गूँज उठी युग-युग के उर की वाणी !

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