नहीं बदलते राजपूत समाज में महिलाओं के सरनेम

Gyan Darpan
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हमारे देश में लगभग समुदायों में महिला का शादी के बाद सरनेम बदल जाता है, उसे अपने पिता के सरनेम से पति का सरनेम रखना पड़ता है| जिससे महिला की अपने खानदान की पहचान खत्म हो जाती है| पिछले दिनों हिंदुस्तान में भी इस सम्बन्ध में दो लेख पढ़ने को मिले- एक लेख में एक महिला ने इस परिपाटी को गलत बताते हुए महिला को सरनेम बदलने से होने वाली परेशानियों पर प्रकाश डाला तो ठीक उसके बगल में एक दूसरे लेख में एक महाशय ने इस परिपाटी के पक्ष में अपने विचार रखे|

मेरा भी यह मानना है कि महिला का शादी के बाद सरनेम नहीं बदलना चाहिए| सरनेम बदलने से एक तो महिला की अपने वंश की पहचान खत्म हो जाती है दूसरा उसे अपना नाम भी अधिकारिक तौर पर बदलना पड़ता है क्योंकि उसके सभी प्रमाण-पत्र में (शिक्षा आदि के) अपने पिता के वंश का सरनेम जुड़ा होता है जो ससुराल का सरनेम लगाने के साथ बदलना पड़ता है| यह भी एक बहुत दुरूह कार्य है| साथ ही उन महिलाओं को सबसे ज्यादा परेशानी होती है जो अपने पिता की राजनैतिक विरासत संभालती है| इंदिरा गाँधी ने अपने पिता नेहरु की राजनैतिक विरासत संभाली पर अपने नाम के आगे इसी परिपाटी के चलते नेहरु न लगा सकी| कई महिलाओं को देखा है वे अपने पिता व पति दोनों का सरनेम अपने नाम के आगे चिपका कर रखती है जिससे भ्रम ही फैलता है|

पर राजपूत समुदाय अन्य समुदायों से इस मामले में बहुत उदार है| राजपूत समाज व राजपूत संस्कृति में महिला को अपने मायके का सरनेम बदलने की कभी जरुरत नहीं पड़ती बल्कि ससुराल में वह अपने मायके के खानदान वाले सरनेम से ही पहचानी जाती है| इतिहास में आप जब भी किसी राजपूत राजा की रानियों के नाम पढेंगे उनके नाम के आगे उनका सरनेम उनके मायके का ही मिलेगा| इतिहास प्रसिद्ध रानी हाड़ी का उदहारण आपके सामने है| रानी हाड़ी जिसने युद्ध में जाते अपने पति के निशानी मांगने पर अपना शीश काटकर दे दिया था वह हाड़ा वंश की पुत्री थी जबकि उसके पति का वंश चूंडावत था वह एक चूंडावत राजा की रानी होते हुए भी इतिहास में हाड़ी रानी के नाम से ही जानी जाती है| इस उदहारण से साफ जाहिर है कि राजपूत समाज में महिला के नाम के आगे उसके मायके का सरनेम चलाने की ही परम्परा रही है|


पर आजकल ना समझी या परम्पराओं का सही ज्ञान न होने के चलते व आधुनिकता के चक्कर में देखा देखि कई राजपूत महिलाऐं भी अपने मायके के सरनेम के बदले अपने पति का सरनेम लिखने लगी है तो कई अपने नाम के आगे अपना व पति दोनों का सरनेम लिख देती है जबकि उन्हें ऐसा करने की कोई जरुरत नहीं क्योंकि हमारा समाज उन्हें अपने मायके की पहचान कायम रखने देने का हिमायती है और समाज में आज भी बुजुर्ग लोग महिलाओं को उनके मायके के सरनेम से पुकारते है|

अन्य समुदायों को भी राजपूत समाज की इस परम्परा से प्रेरणा लेकर उन महिलाओं को जो अपने पिता के वंश का सरनेम लगाना चाहती है लगाने देने की छूट देनी चाहिए|

"वैदिक क्षत्रिय स्त्रियाँ ससुराल में भी अपने पितृकुल से ही पहचानी जाती थी, वे उसमे अपना आत्म गौरव महसूस करती थी. यह परम्परा अध्यावधी आज भी राजपूत समाज में विद्यमान है.
आज नारी स्वतन्त्रता की हिमायत करने वाले इस बात को कभी नही समझ पाएंगे.यह अत्योक्ति नही है पर मुझे यह कहते हुए गर्व अनुभव होता है कि आज भी कुलीन राजपुत परिवारों में यह मर्यादा कायम है|"
मदन सिंह शेखावत

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25टिप्पणियाँ

  1. Bilkul sahi bat h hkm ..... sabki pahchan uske apne nam w apne upnam se hi honi chahiye ... kai bar dusri jati ki aurto m tlak ya dusra wiwah karne p bar bar sarname badlne se accha h ki apni pahchan hamesha apne nam se hi rakhe phir chahe wo kisi k bhi sath fere le ... ye soch badlne ki tarf aap y lekh jaroor kam karega ...shukriya

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  2. आपके विचार सही हैं। विवाह के बाद महिलाओं का सरनेम नहीं बदलना चाहिए ।

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  3. पुराने जमाने में उपनाम वास्तव में गोत्र के नाम होते थे। मातृवंशियों में सभी को माता का गोत्र नाम मिलता था। जब कि पितृवंशीय गोत्रों में संतानों को पिता का गोत्र प्राप्त होता है। लेकिन पितृसत्तात्मक परिवारों में स्त्री का विवाह होते ही वह अपने पिता के परिवार से उत्तराधिकार प्राप्त करने का अधिकार खो बैठती थी, उस का उत्तराधिकार पति की संपत्ति में होने लगा था। स्त्री-धन अतिरिक्त होता था जो उसे विवाह के समय अथवा बाद में उपहार के रूप में प्राप्त होता था। इसी कारण से उस का गोत्र बदला जाने लगा। लेकिन वह गलत था। प्राचीन हिन्दू परंपरा में माता से पाँच संबंधों तक तथा पिता से सात संबंधों तक सपिण्ड विवाह माना जाता था और इतनी पीढ़ियों की जानकारियों को सुरक्षित रखा जाता था। माता और दादी के मू मूल गोत्र में विवाह भी वर्जित थे जिसे बाद में मामा और पिता के मामा के गोत्र में विवाह वर्जित हैं ऐसा कहा जाने लगा। लेकिन अब जब स्त्री को उस के माता-पिता की संपत्ति में तथा पुरुष को उस की पत्नी की संपत्ति में उत्तराधिकार मिलने पर गोत्र के साथ उत्तराधिकार की व्यवस्था विच्छिन्न हो गयी है। वैसी अवस्था में स्त्रियों को उपनाम बदलने की आवश्यकता नहीं रही है।

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  4. सबको अपना नाम अपने अनुसार रखने का अधिकार हो, नाम यदि छोटा ही हो तो अच्छा।

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  5. इस विषय पर सभी के विचार भिन्न-भिन्न हैं | जबकि सुप्रीम कोर्ट (उच्चतम नयायालय) ने भी अपने फैसले में कहा है कि किसी भी स्त्री के पैत्रिक पहचान यथावत रहेगी जब तक वह स्त्री जहां पर उस का विवाह हुआ है | वह स्त्री यदि अपने पति (परिवार : समेत बच्चों के ) के साथ एक राज्य से बदल कर दूसरे राज्य में जा कर नहीं रहने लगती | इस का मतलब ये हुआ कि वो कोई भी स्त्री जो किसी भी पुरुष के साथ विवाहित होती है उसके पैत्रिक जाती उसके साथ जुड़ी रहेगी | ये उस स्त्री के विवेक पर निर्भर करता है कि वो अपने नाम के साथ अपने पति की जाति का प्रयोग करे या न करे |

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  6. प्रेरक जानकारी ! इतिहास में अनेक उदहारण है !जैसे मीरा बाई को मीरा मेरतनी के नाम से जाना जाता है ! जब की बहु सिशोदिया वंश की थी !

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  7. बहुत अच्छा आलेख,मैं आपकी बात से सहमत हूं !

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  8. सही है, हमें तो पहली बार पता चला । वैसे नाम छोटा और सरल हो तो आसानी होती है।

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  9. सार्थक और उपयोगी जानकारी... आभार

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  10. मैंं भी इस मत का मानने वाला हूं कि विवाह के बाद नाम नहीं बदलना चाहिए।

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  11. अच्छा आलेख..मैडन नाम रखने का जोर इस दिशा में भी बहुत है.

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  12. बहुत सुंदर लेख शेखावत साहब ,मैं आपकी बात से सहमत हूं !

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  13. 'राजपूत समाज' से शुरु आपकी बात 'कुलीन राजपूत परिवारों' पर आकर समापत हुई। रानी हाडी का उदाहरण अपवाद है। मैं भी ठेठ देहाती आदमी हूँ किन्‍तु मेरा अनुभव आपकी बात से मेल नहीं खाता।

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    1. आपका कैसा अनुभव रहा उस पर मैं टिप्पणी नहीं कर सकता पर हमारे यहाँ राजपूत समाज के हर वर्ग में महिला अपने मायके के सरनेम से ही जानी जाती है|
      रानी हाड़ी ही क्यों ? राजस्थान का इतिहास उठाकर देखिये हर रानी की पहचान उसके पितृकुल से ही की गयी है| और आज भी यह परम्परा उसी रूप में चालू है|

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  14. रतन सिंह जी ..
    राजपूत समाज ही क्या लगभग हर समाज में शादी के
    बाद पत्नी पतिके सरनेम से ही जानी जाती है....
    विषय अच्छा लगा ..बढ़िया पोस्ट ..
    मेरे पोस्ट में स्वागत है...

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  15. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी की गई है!
    यदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल इसी उद्देश्य से दी जा रही है! अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।
    बालदिवस की शुभकामनाएँ!

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  16. आपके पोस्ट पर आना सार्थक सिद्ध हुआ । । मेरे पोस्ट पर आप आमंत्रित हैं । धन्यवाद ।

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  17. अच्छी पोस्ट आभार ! मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है । धन्यवाद।

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  18. बहुत ही अच्‍छा लिखा है आपने ...अक्षरश: सहमत हूं ।

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  19. As far as concern regarding using the surname of husband instead of fathers name it is the process of document related and Its depend of personal preference there is no rule for this in the constitution or in society about this.

    but most of the rajputs uses only Singh as surname in both side in this case there is no need for Name change

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  20. Ashok Fellow aur najane kitne hi samajik karyon ke liye purashkrit Shri Lenin Raghuvanshi ki wife Smt. Shruti Nagvanshi aaj bhi apan sirname use karti hai, jab aaj dono hi logon ne samajseva mein hi apan jeevan arpit kar diya hai smt.Shruti nagvanshi ke NGO ka nama bhi Shruti Nagvanshi hi hai http://shrutinagvanshi.com/

    Lenin Raghuvanshi-http://en.wikipedia.org/wiki/Lenin_Raghuvanshi

    http://www.pvchr.net/2012/03/women-folk-school-on-neo-dalit.html

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  21. जोरदार की बहुत ही बहुमूल्य बात है

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  22. बहुत अच्छा आलेख,मैं आपकी बात से सहमत हूं !

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