मित्र के विरह में कवि और विरह दोहे

Gyan Darpan
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ज्ञान दर्पण पर "इतिहास की एक चर्चित दासी भारमली" के बारे पढ़ते हुए आपने पढ़ा कि जैसलमेर के रावत लूणकरणजी की रानी राठौड़ीजी ने भारमली को जैसलमेर से ले जाने के लिए अपने भाई कोटड़ा के स्वामी बाघ जी को बुलवा भेजा था | बहन के कहने पर बाघजी भारमली को चुपके से उठाकर अपने गांव कोटड़ा ले आये |

भारमली के बिना जोधपुर के मालदेव को भी चैन नहीं था पर बाघ जी से भारमली को छिनना भी कोई आसान नहीं था क्योंकि राव मालदेव मालदेव जानता था कि ऐसी हालत में बाघजी पहले भारमली को मरेगा फिर खुद युद्ध करते मर जायेगा | एक दिन राव मालदेव ने कवि आसाजी चारण को बुलाकर कहा " मेरी छाती में एक तीर अटका हुआ है उस तीर को आप ही निकाल सकते है " और राव मालदेव ने आसाजी चारण को पूरी कहानी बताई और कहा कि - आपकी कविता की शक्ति ही मेरी छाती से ये तीर निकाल सकती है आप कोटड़ा बाघजी के पास जाइए वह कविता का बहुत बड़ा रसिया है और आपकी कविताएँ सुनकर वह खुश होकर जब आपको कुछ मांगने के लिए कहे तो आप उसे वचन बद्ध कर मेरे लिए उससे भारमली मांग लायें |

और कवि आसाजी बारहट (चारण) ऊंट लेकर कोटड़ा बाघजी के पास पहुँच गए पर बाघजी द्वारा दिए आदर सत्कार व मेहमानबाजी के चलते कवि महाराज अपने आने का मूल उद्देश्य ही भूल गए उनकी बाघजी से गहरी मित्रता भी हो गई |
कुछ वर्षों बाद बाघजी की मृत्यु हो गई , भारमली उनके साथ सती हो गयी | कवि आसाजी बारहट का जीवन अब अपने मित्र बाघजी के बिना शून्य हो चूका था ,बाघजी की स्मृति ने उन्हें बैचेन बना दिया | कवि तो थे सो अपने उद्गार पीछोलों के माध्यम से व्यक्त किये |
बाघे बिन कोटड़ो, लागै यों अहडोह |
जानी घरे सिधावियाँ , जाणे मांढवड़ोह ||

बाघजी के बिना यह कोटड़ा एसा लगता है जैसा बारातियों के चले जाने पर विवाह मंडप |

जिसके घर कभी बारात आई हो और विवाह मंडप को बारातियों के चले जाने पर देखा हो वाही अनुमान लगा सकते है या बाघजी जैसे मित्र के बिछुड़ने पर आसाजी बारहट जैसे कवि ही अनुमान लगा सकते है कि शुन्यता क्या होती है ? सच पूछो तो इस विवाह मंडप को शुन्यता का साकार रूप कह सकते है | दोहे की थाह ली जाये तो इसमें उपमा मात्र का ही लालित्य नहीं है बल्कि इसमें ह्रदय की सच्ची उथल-पुथल अन्तर्निहित है |
मारग मंडी चणाय , पंथ जोऊं सैणा तणों |
कोई बटाऊ आय, (म्हनै)वातां कहो नी बाघरी ||

राह पर मठ बनाकर अपने मित्र की राह देख रहा हूँ | कोई मुझे बाघजी की बातें कहो न |

निर्दोष और स्वच्छ हृदय की यह जिज्ञासापूर्ण आहें राजस्थानी साहित्य की अमर संपत्ति है | कल्पना को कितना मृदु रूप प्रदान किया है | "मारग मंडी चणाय , पंथ जोऊं सैणा तणों " में कवि हृदय का भावुक प्रेम किस विशेषण से चित्रित है और 'म्हनै वातां कहो नी ' कितनी मर्मस्पर्शी अभिलाषा है |अपने प्रिय की बातें सुनकर कभी मन तृप्त नहीं होता |
लाखों बाळद लाय, कीरत रो सोदो करे |
एकरस्यां घिर आव ,विणजारो व्है बाघजी ||

लाखों बैलों को लाकर कीर्ति का सौदा करना | हे बाघजी बंजारा होकर भी एक बार फिर आना |

प्रेमी के लिए 'एकरस्यां घिर आव' में कितना ललित आव्हान चित्रित है | एक बार फिर ,प्रत्येक असफल और प्रत्येक अनुरक्त की अभिलाषा बनी रहती है | एकरस्यां के भविष्य में एक नए लोक की सृष्टि है और एक निश्चित आनंद की प्राप्ति की आशा है | बाह्यावरणों की कोई चिंता नहीं,चाहे वह "बिणजारो" होकर अथवा अन्य रूप में | उसे तो पुराना हृदय चाहिए | कितना आदर्श भाव सोरठे में व्यक्त किया गया है |
हाटे पड़ी हठताल, चतरंगिया चाले रह्या |
करसण करै कलाळ, विकरो भागो बाघजी ||

रसिक बाघजी के चले जाने से हाटों में हड़ताल हो गई | कलाल (दारू बेचने वाला) की तो बिक्री ही टूट गई ,वह अब खेती करने लग गया है |

आसाजी बारहट अपनी प्रतिभा से विश्व व प्रकृति के समस्त व्यापारों में बाघा के बिछुड़ने का परिणाम देखते है | कलाळ के खेती करने का पेशा भी उन्हें इसी बात का सूचक प्रतीत होता है कि बाघाजी के न होने से उनका पेशा टूट गया है |
कूकै कोयलियांह, मीठा बोलै मोरिया |
राचै रंग रलियांह, बागां विच्चे बाघजी ||

हे बाघजी ! आज कोयल कुक रही है और मोर मृदु ध्वनि से बोल रहे है | बाग़ में सुन्दर बहार है (फिर तो आ जावो) अपने प्रेमी को बुलाने के कितने बहाने ढूंढ़ लाते है |
बाघा आव वलेह ,दुःख भंजण दूदा हरा |
आठुं पहर उदेह ,जातां देगो जेतरा ||

हे बाघ जी !(जैतसिंह के पुत्र) तेरे विरह से उत्पन्न दुःख आठों पहर बना रहता है | अब हे दादू के वंशज ! एक बार फिर आकर उसे मिटाजा |
कसतुरी झंकी भई, केसर घटियो आघ |
सब वस्तु सूंघी थई, गयो वटाऊ बाघ ||

कस्तूरी सस्ती हो गई है और केसर का भाव भी गिर गया है | सब वस्तुएं सस्ती हो गई लेकिन पथिक बाघजी चले गए |
इस तरह आसाजी बाघजी के चले जाने का दुःख सहन नहीं कर सके ,वे बाघजी के विरह में पागल से हो गए वे जिधर भी देखते उन्हें बाघजी की सूरत ही नजर आती और वे बाघा बाघा चिल्लाते हुए उनके विरह में हो दोहे व कविताएँ बोलते रहे |

एक दिन कविराज आसाजी के बारे में अमरकोट के राणा जी ने सुना तो उन्होंने कहा कि कविराज को मैं अपने पास रखूँगा और उनका इतना ख्याल रखूँगा कि वे बाघजी को भूल जायेंगे | और आसाजी को राणा ने अमरकोट बुलवा लिया | एक दिन राणा जी ने कविराज आसाजी को कहा कि वे सिर्फ एक बाघजी का नाम न लें तो मैं आपको रात्रि के चारों प्रहरों के हिसाब से चार लाख रूपये इनाम दूंगा |

पर राणा जी का लालच भी कविराज को अपने मित्र की याद से दूर नहीं रख सका |
राणा जी व कविराज आसाजी के बीच इस प्रसंग पर विस्तार से चर्चा अगले किसी लेख में जल्द ही होगी|

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7टिप्पणियाँ

  1. धन्य है आस जी जैसे कवि | बहुत बढ़िया दोहे रचे है |

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  2. हमारे लिए जो यह नई जनकारी है जी!
    आपका आभार!

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  3. thank you sir for posting such a wonderful doha by my ancestor ashaji rohadiya. it is great

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  4. kotdyo bagho kathe,kathe asho dhabhi aaj !
    gaije jas geetda, gaya bhintda bhaj !!

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